किसी ने रात कहा उस की देख कर सूरत
किसी ने रात कहा उस की देख कर सूरत कि मैं ग़ुलाम हूँ इस शक्ल का बहर-सूरत हैं आइने के भी क्या ताले अब सिकंदर वाह कि उस निगार की देखे है हर सहर सूरत अजब बहार हुई कल तो वक़्त-ए-नज़्ज़ारा जो मैं इधर को हुआ उस ने की उधर सूरत उधर को जब मैं गया उस ने ली इधर को फेर फिरा मैं उस ने फिराई जिधर जिधर सूरत हज़ारों फूर्तियाँ मैं ने तो कीं पर उस ने 'नज़ीर' न देखने दी मुझे अपनी आँख-भर सूरत

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