बहार
गुलशन-ए-आलम में जब तशरीफ़ लाती है बहार रंग-ओ-बू के हुस्न क्या क्या कुछ दिखाती है बहार सुब्ह को ला कर नसीम दिल-कुशा हर शाख़ पर ताज़ा-तर किस किस तरह के गुल खिलाती है बहार नौनिहालों की दिखा कर दम-ब-दम नश्व-ओ-नुमा जिस्म में रूह-ए-रवाँ क्या क्या बढ़ाती है बहार बुलबुलें चहकारती हैं शाख़-ए-गुल पर जा-ब-जा बुलबुलें क्या फ़िल-हक़ीक़त चहचहाती है बहार हौज़-ओ-फ़व्वारों को दे कर आबरू फिर लुत्फ़ से क्या मोअत्तर फ़र्श सब्ज़े का बिछाती है बहार जुम्बिश-ए-बाद-ए-सबा से हो के हम-दोश-ए-नशात साथ हर सब्ज़े के क्या क्या लहलहाती है बहार ख़ल्क़ को हर लहज़ा अपने हुस्न की रंगत दिखा बे-तकल्लुफ़ क्या ही हर दिल में समाती है बहार मजमा-ए-ख़ूबाँ हुजूम-ए-आशिक़ाँ और जोश-ए-गुल देख इन रंगों को क्या क्या खिलखिलाती है बहार गुल-रुख़ों की देख कर गुल-बाज़ियाँ हर दम नज़ीर गुल इधर ख़ंदाँ उधर धूमें मचाती है बहार

Read Next