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वफ़ा तुझ से ऐ बेवफ़ा चाहता हूँ मिरी सादगी देख क्या चाहता हूँ...

क्या वो अब नादिम हैं अपने जौर की रूदाद से लाए हैं मेरठ जो आख़िर मुझ को फ़ैज़ाबाद से सैर-ए-गुल को आई थी जिस दम सवारी आप की फूल उट्ठा था चमन फ़ख़्र-ए-मुबारकबाद से...

और भी हो गए बेगाना वो ग़फ़लत कर के आज़माया जो उन्हें ज़ब्त-ए-मोहब्बत कर के दिल ने छोड़ा है न छोड़े तिरे मिलने का ख़याल बार-हा देख लिया हम ने मलामत कर के...

जो वो नज़र बसर-ए-लुत्फ़ आम हो जाए अजब नहीं कि हमारा भी काम हो जाए शराब-ए-शौक़ की क़ीमत है नक़्द-ए-जान-ए-अज़ीज़ अगर ये बाइस-ए-कैफ़-ए-दवाम हो जाए...

वस्ल की बनती हैं इन बातों से तदबीरें कहीं आरज़ूओं से फिरा करती हैं तक़दीरें कहीं...

रात दिन नामा-ओ-पैग़ाम कहाँ तक दोगे साफ़ कह दीजिए मिलना हमें मंज़ूर नहीं...

नहीं आती तो याद उन की महीनों तक नहीं आती मगर जब याद आते हैं तो अक्सर याद आते हैं...

बरसात के आते ही तौबा न रही बाक़ी बादल जो नज़र आए बदली मेरी नीयत भी...

ग़ैर की नज़रों से बच कर सब की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ वो तिरा चोरी-छुपे रातों को आना याद है...

क़िस्मत-ए-शौक़ आज़मा न सके उन से हम आँख भी मिला न सके हम से याँ रंज-ए-हिज्र उठ न सका वाँ वो मजबूर थे वो आ न सके...

रोग दिल को लगा गईं आँखें इक तमाशा दिखा गईं आँखें मिल के उन की निगाह-ए-जादू से दिल को हैराँ बना गईं आँखें...

जबीं पर सादगी नीची निगाहें बात में नरमी मुख़ातिब कौन कर सकता है तुम को लफ़्ज़-ए-क़ातिल से...

शेर दर-अस्ल हैं वही 'हसरत' सुनते ही दिल में जो उतर जाएँ...

बाम पर आने लगे वो सामना होने लगा अब तो इज़हार-ए-मोहब्बत बरमला होने लगा इश्क़ से फिर ख़तरा-ए-तर्क-ए-वफ़ा होने लगा फिर फ़रेब-ए-हुस्न सरगर्म-ए-अदा होने लगा...

रविश-ए-हुस्न-ए-मुराआत चली जाती है हम से और उन से वही बात चली जाती है उस जफ़ा-जू से बा-ईमा-ए-तमन्ना अब तक हवस-ए-लुत्फ़-ओ-इनायात चली जाती है...

चोरी चोरी हम से तुम आ कर मिले थे जिस जगह मुद्दतें गुज़रीं पर अब तक वो ठिकाना याद है...

पैरव-ए-मस्लक-ए-तस्लीम-ओ-रज़ा होते हैं हम तेरी राह-ए-मोहब्बत में फ़ना होते हैं शर्म कर शर्म कि ऐ जज़्बा-ए-तासीर-ए-वफ़ा तेरे हाथों वो पशीमान-ए-जफ़ा होते हैं...

हुस्न-ए-बे-परवा को ख़ुद-बीन ओ ख़ुद-आरा कर दिया क्या किया मैं ने कि इज़हार-ए-तमन्ना कर दिया बढ़ गईं तुम से तो मिल कर और भी बेताबियाँ हम ये समझे थे कि अब दिल को शकेबा कर दिया...

दीदनी हैं दिल-ए-ख़राब के रंग आह उस चश्म-ए-पुर-हिजाब के रंग फ़स्ल-ए-गुल में पड़ें तो ख़ूब खिलें ख़िर्क़ा-ए-ज़ोहद पर शराब के रंग...

वस्ल की बनती हैं इन बातों से तदबीरें कहीं आरज़ूओं से फिरा करती हैं तक़दीरें कहीं बे-ज़बानी तर्जुमान-ए-शौक़ बेहद हो तो हो वर्ना पेश-ए-यार काम आती हैं तक़रीरें कहीं...

अक़्ल से हासिल हुई क्या क्या पशीमानी मुझे इश्क़ जब देने लगा तालीम-ए-नादानी मुझे रंज देगी बाग़-ए-रिज़वाँ की तन-आसानी मुझे याद आएगा तिरा लुत्फ़-ए-सितम-रानी मुझे...

मुनहसिर वक़्त-ए-मुक़र्रर पे मुलाक़ात हुई आज ये आप की जानिब से नई बात हुई...

वाक़िफ़ हैं ख़ूब आप के तर्ज़-ए-जफ़ा से हम इज़हार-ए-इल्तिफ़ात की ज़हमत न कीजिए...

चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है हम को अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है...

हुस्न-ए-बे-मेहर को परवा-ए-तमन्ना क्या हो जब हो ऐसा तो इलाज-ए-दिल-ए-शैदा क्या हो कसरत-ए-हुस्न की ये शान न देखी न सुनी बर्क़ लर्ज़ां है कोई गर्म-ए-तमाशा क्या हो...

तेरी महफ़िल से उठाता ग़ैर मुझ को क्या मजाल देखता था मैं कि तू ने भी इशारा कर दिया...

आप ने क़द्र कुछ न की दिल की उड़ गई मुफ़्त में हँसी दिल की ख़ू है अज़-बस कि आशिक़ी दिल की ग़म से वाबस्ता है ख़ुशी दिल की...

खींच लेना वो मिरा पर्दे का कोना दफ़अतन और दुपट्टे से तिरा वो मुँह छुपाना याद है...

दिल को ख़याल-ए-यार ने मख़्मूर कर दिया साग़र को रंग-ए-बादा ने पुर-नूर कर दिया मानूस हो चला था तसल्ली से हाल-ए-दिल फिर तू ने याद आ के ब-दस्तूर कर दिया...

याद कर वो दिन कि तेरा कोई सौदाई न था बावजूद-ए-हुस्न तू आगाह-ए-रानाई न था इश्क़-ए-रोज़-अफ़्ज़ूँ पे अपने मुझ को हैरानी न थी जल्वा-ए-रंगीं पे तुझ को नाज़-ए-यकताई न था...

तोड़ कर अहद-ए-करम ना-आश्ना हो जाइए बंदा-परवर जाइए अच्छा ख़फ़ा हो जाइए...

कभी की थी जो अब वफ़ा कीजिएगा मुझे पूछ कर आप क्या कीजिएगा...

आसान-ए-हक़ीकी है न कुछ सहल-ए-मजाज़ी मालूम हुई राह-ए-मोहब्बत की दराज़ी कुछ लुत्फ़ ओ नज़र लाज़िम ओ मलज़ूम नहीं हैं इक ये भी तमन्ना की न हो शोबदा बाज़ी...

ग़म-ए-आरज़ू का 'हसरत' सबब और क्या बताऊँ मिरी हिम्मतों की पस्ती मिरे शौक़ की बुलंदी...

क्या काम उन्हें पुर्सिश-ए-अरबाब-ए-वफ़ा से मरता है तो मर जाए कोई उन की बला से मुझ से भी ख़फ़ा हो मिरी आहों से भी बरहम तुम भी हो अजब चीज़ कि लड़ते हो हवा से...

हमें वक़्फ़-ए-ग़म सर-ब-सर देख लेते वो तुम कुछ न करते मगर देख लेते न करते कभी ख़्वाहिश-ए-सैर-ए-जन्नत जो वाइज़ तिरा रहगुज़र देख लेते...

लुत्फ़ की उन से इल्तिजा न करें हम ने ऐसा कभी किया न करें मिल रहेगा जो उन से मिलना है लब को शर्मिंदा-ए-दुआ न करें...

रानाई-ए-ख़याल को ठहरा दिया गुनाह वाइज़ भी किस क़दर है मज़ाक़-ए-सुख़न से दूर...

छेड़ा है दस्त-ए-शौक़ ने मुझ से ख़फ़ा हैं वो गोया कि अपने दिल पे मुझे इख़्तियार है...

बे-ज़बानी तर्जुमान-ए-शौक़ बेहद हो तो हो वर्ना पेश-ए-यार काम आती है तक़रीरें कहीं...