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बरकतें सब हैं अयाँ दौलत-ए-रूहानी की वाह क्या बात है उस चेहरा-ए-नूरानी की शौक़ देखे तुझे किस आँख से ऐ मेहर-ए-जमाल कुछ निहायत ही नहीं तेरी दरख़शानी की...

अल्लाह-री जिस्म-ए-यार की ख़ूबी कि ख़ुद-ब-ख़ुद रंगीनियों में डूब गया पैरहन तमाम...

बाम पर आने लगे वो सामना होने लगा अब तो इज़हार-ए-मोहब्बत बरमला होने लगा...

जो और कुछ हो तिरी दीद के सिवा मंज़ूर तो मुझ पे ख़्वाहिश-ए-जन्नत हराम हो जाए...

उस ना-ख़ुदा के ज़ुल्म ओ सितम हाए क्या करूँ कश्ती मिरी डुबोई है साहिल के आस-पास...

बद-गुमाँ आप हैं क्यूँ आप से शिकवा है किसे जो शिकायत है हमें गर्दिश-ए-अय्याम से है...

कहाँ हम कहाँ वस्ल-ए-जानाँ की 'हसरत' बहुत है उन्हें इक नज़र देख लेना...

हम क्या करें अगर न तिरी आरज़ू करें दुनिया में और भी कोई तेरे सिवा है क्या...

क्या तुम को इलाज-ए-दिल-ए-शैदा नहीं आता आता है पर इस तरह कि गोया नहीं आता हो जाती थी तस्कीन सो अब फ़र्त-ए-अलम से इस बात को रोते हैं कि रोना नहीं आता...

फिर और तग़ाफ़ुल का सबब क्या है ख़ुदाया मैं याद न आऊँ उन्हें मुमकिन ही नहीं है...

बर्क़ को अब्र के दामन में छुपा देखा है हम ने उस शोख़ को मजबूर-ए-हया देखा है...

मुक़र्रर कुछ न कुछ इस में रक़ीबों की भी साज़िश है वो बे-परवा इलाही मुझ पे क्यूँ गर्म-ए-नवाज़िश है प-ए-मश्क़-ए-तग़ाफ़ुल आप ने मख़्सूस ठहराया हमें ये बात भी मिंजुमल-ए-असबाब नाज़िश है...

चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है हम को अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है बा-हज़ाराँ इज़्तिराब ओ सद-हज़ाराँ इश्तियाक़ तुझ से वो पहले-पहल दिल का लगाना याद है...

शेर मेरे भी हैं पुर-दर्द व-लेकिन 'हसरत' 'मीर' का शेवा-ए-गुफ़्तार कहाँ से लाऊँ...

घटेगा तेरे कूचे में वक़ार आहिस्ता आहिस्ता बढ़ेगा आशिक़ी का ए'तिबार आहिस्ता आहिस्ता बहुत नादिम हुए आख़िर वो मेरे क़त्ल-ए-नाहक़ पर हुई क़द्र-ए-वफ़ा जब आश्कार आहिस्ता आहिस्ता...

आईने में वो देख रहे थे बहार-ए-हुस्न आया मिरा ख़याल तो शर्मा के रह गए...

उस बुत के पुजारी हैं मुसलमान हज़ारों बिगड़े हैं इसी कुफ़्र में ईमान हज़ारों दुनिया है कि उन के रुख़ ओ गेसू पे मिटी है हैरान हज़ारों हैं परेशान हज़ारों...

आप को आता रहा मेरे सताने का ख़याल सुल्ह से अच्छी रही मुझ को लड़ाई आप की...

है मश्क़-ए-सुख़न जारी चक्की की मशक़्क़त भी इक तुर्फ़ा तमाशा है 'हसरत' की तबीअत भी...

ऐसे बिगड़े कि फिर जफ़ा भी न की दुश्मनी का भी हक़ अदा न हुआ...

इक़रार है कि दिल से तुम्हें चाहते हैं हम कुछ इस गुनाह की भी सज़ा है तुम्हारे पास...

महरूम-ए-तरब है दिल-ए-दिल-गीर अभी तक बाक़ी है तिरे इश्क़ की तासीर अभी तक वस्ल उस बुत-ए-बद-ख़ू का मयस्सर नहीं होता वाबस्ता-ए-तक़दीर है तदबीर अभी तक...

तुझ से गरवीदा यक ज़माना रहा कुछ फ़क़त मैं ही मुब्तिला न रहा आप को अब हुई है क़द्र-ए-वफ़ा जब कि मैं लाइक़-ए-जफ़ा न रहा...

रौशन जमाल-ए-यार से है अंजुमन तमाम दहका हुआ है आतिश-ए-गुल से चमन तमाम...

उन को रुस्वा मुझे ख़राब न कर ऐ दिल इतना भी इज़्तिराब न कर आमद-ए-यार की उम्मीद न छोड़ देख ऐ आँख मैल-ए-ख़्वाब न कर...

न सही गर उन्हें ख़याल नहीं कि हमारा भी अब वो हाल नहीं याद उन्हें वादा-ए-विसाल नहीं कब किया था यही ख़याल नहीं...

छुप के उस ने जो ख़ुद-नुमाई की इंतिहा थी ये दिलरुबाई की माइल-ए-ग़म्ज़ा है वो चश्म-ए-सियाह अब नहीं ख़ैर पारसाई की...

तासीर-ए-बर्क़-ए-हुस्न जो उन के सुख़न में थी इक लर्ज़िश-ए-ख़फ़ी मिरे सारे बदन में थी वाँ से निकल के फिर न फ़राग़त हुई नसीब आसूदगी की जान तिरी अंजुमन में थी...

बेकली से मुझे राहत होगी छेड़ दें आप इनायत होगी वस्ल में उन के क़दम चूमेंगे वो भी गर उन की इजाज़त होगी...

नज़्ज़ारा-ए-पैहम का सिला मेरे लिए है हर सम्त वो रुख़ जल्वा-नुमा मेरे लिए है उस चेहरा-ए-अनवर की ज़िया मेरे लिए है वो ज़ुल्फ़-ए-सियह ताब-ए-दोता मेरे लिए है...

उन को याँ वादे पे आ लेने दे ऐ अब्र-ए-बहार जिस क़दर चाहना फिर बाद में बरसा करना...

देखा किए वो मस्त निगाहों से बार बार जब तक शराब आई कई दौर हो गए...

है इंतिहा-ए-यास भी इक इब्तिदा-ए-शौक़ फिर आ गए वहीं पे चले थे जहाँ से हम...

हम ने किस दिन तिरे कूचे में गुज़ारा न किया तू ने ऐ शोख़ मगर काम हमारा न किया एक ही बार हुईं वजह-ए-गिरफ़्तारी-ए-दिल इल्तिफ़ात उन की निगाहों ने दोबारा न किया...

शाम हो या कि सहर याद उन्हीं की रखनी दिन हो या रात हमें ज़िक्र उन्हीं का करना...

पुर्सिश-ए-हाल पे है ख़ातिर-ए-जानाँ माइल जुरअत-ए-कोशिश-ए-इज़हार कहाँ से लाऊँ...

तोड़ कर अहद-ए-करम ना-आश्ना हो जाइए बंदा-परवर जाइए अच्छा ख़फ़ा हो जाइए मेरे उज़्र-ए-जुर्म पर मुतलक़ न कीजे इल्तिफ़ात बल्कि पहले से भी बढ़ कर कज-अदा हो जाइए...

कैसे छुपाऊँ राज़-ए-ग़म दीदा-ए-तर को क्या करूँ दिल की तपिश को क्या करूँ सोज़-ए-जिगर को क्या करूँ शोरिश-ए-आशिक़ी कहाँ और मेरी सादगी कहाँ हुस्न को तेरे क्या कहूँ अपनी नज़र को क्या करूँ...

आरज़ू तेरी बरक़रार रहे दिल का क्या है रहा रहा न रहा...

सभी कुछ हो चुका उन का हमारा क्या रहा 'हसरत' न दीं अपना न दिल अपना न जाँ अपनी न तन अपना...