बरकतें सब हैं अयाँ दौलत-ए-रूहानी की वाह क्या बात है उस चेहरा-ए-नूरानी की शौक़ देखे तुझे किस आँख से ऐ मेहर-ए-जमाल कुछ निहायत ही नहीं तेरी दरख़शानी की...
क्या तुम को इलाज-ए-दिल-ए-शैदा नहीं आता आता है पर इस तरह कि गोया नहीं आता हो जाती थी तस्कीन सो अब फ़र्त-ए-अलम से इस बात को रोते हैं कि रोना नहीं आता...
मुक़र्रर कुछ न कुछ इस में रक़ीबों की भी साज़िश है वो बे-परवा इलाही मुझ पे क्यूँ गर्म-ए-नवाज़िश है प-ए-मश्क़-ए-तग़ाफ़ुल आप ने मख़्सूस ठहराया हमें ये बात भी मिंजुमल-ए-असबाब नाज़िश है...
चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है हम को अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है बा-हज़ाराँ इज़्तिराब ओ सद-हज़ाराँ इश्तियाक़ तुझ से वो पहले-पहल दिल का लगाना याद है...
घटेगा तेरे कूचे में वक़ार आहिस्ता आहिस्ता बढ़ेगा आशिक़ी का ए'तिबार आहिस्ता आहिस्ता बहुत नादिम हुए आख़िर वो मेरे क़त्ल-ए-नाहक़ पर हुई क़द्र-ए-वफ़ा जब आश्कार आहिस्ता आहिस्ता...
उस बुत के पुजारी हैं मुसलमान हज़ारों बिगड़े हैं इसी कुफ़्र में ईमान हज़ारों दुनिया है कि उन के रुख़ ओ गेसू पे मिटी है हैरान हज़ारों हैं परेशान हज़ारों...
महरूम-ए-तरब है दिल-ए-दिल-गीर अभी तक बाक़ी है तिरे इश्क़ की तासीर अभी तक वस्ल उस बुत-ए-बद-ख़ू का मयस्सर नहीं होता वाबस्ता-ए-तक़दीर है तदबीर अभी तक...
तुझ से गरवीदा यक ज़माना रहा कुछ फ़क़त मैं ही मुब्तिला न रहा आप को अब हुई है क़द्र-ए-वफ़ा जब कि मैं लाइक़-ए-जफ़ा न रहा...
उन को रुस्वा मुझे ख़राब न कर ऐ दिल इतना भी इज़्तिराब न कर आमद-ए-यार की उम्मीद न छोड़ देख ऐ आँख मैल-ए-ख़्वाब न कर...
न सही गर उन्हें ख़याल नहीं कि हमारा भी अब वो हाल नहीं याद उन्हें वादा-ए-विसाल नहीं कब किया था यही ख़याल नहीं...
छुप के उस ने जो ख़ुद-नुमाई की इंतिहा थी ये दिलरुबाई की माइल-ए-ग़म्ज़ा है वो चश्म-ए-सियाह अब नहीं ख़ैर पारसाई की...
तासीर-ए-बर्क़-ए-हुस्न जो उन के सुख़न में थी इक लर्ज़िश-ए-ख़फ़ी मिरे सारे बदन में थी वाँ से निकल के फिर न फ़राग़त हुई नसीब आसूदगी की जान तिरी अंजुमन में थी...
बेकली से मुझे राहत होगी छेड़ दें आप इनायत होगी वस्ल में उन के क़दम चूमेंगे वो भी गर उन की इजाज़त होगी...
नज़्ज़ारा-ए-पैहम का सिला मेरे लिए है हर सम्त वो रुख़ जल्वा-नुमा मेरे लिए है उस चेहरा-ए-अनवर की ज़िया मेरे लिए है वो ज़ुल्फ़-ए-सियह ताब-ए-दोता मेरे लिए है...
हम ने किस दिन तिरे कूचे में गुज़ारा न किया तू ने ऐ शोख़ मगर काम हमारा न किया एक ही बार हुईं वजह-ए-गिरफ़्तारी-ए-दिल इल्तिफ़ात उन की निगाहों ने दोबारा न किया...
तोड़ कर अहद-ए-करम ना-आश्ना हो जाइए बंदा-परवर जाइए अच्छा ख़फ़ा हो जाइए मेरे उज़्र-ए-जुर्म पर मुतलक़ न कीजे इल्तिफ़ात बल्कि पहले से भी बढ़ कर कज-अदा हो जाइए...
कैसे छुपाऊँ राज़-ए-ग़म दीदा-ए-तर को क्या करूँ दिल की तपिश को क्या करूँ सोज़-ए-जिगर को क्या करूँ शोरिश-ए-आशिक़ी कहाँ और मेरी सादगी कहाँ हुस्न को तेरे क्या कहूँ अपनी नज़र को क्या करूँ...
सभी कुछ हो चुका उन का हमारा क्या रहा 'हसरत' न दीं अपना न दिल अपना न जाँ अपनी न तन अपना...