जो वो नज़र बसर-ए-लुत्फ़ आम हो जाए
जो वो नज़र बसर-ए-लुत्फ़ आम हो जाए अजब नहीं कि हमारा भी काम हो जाए शराब-ए-शौक़ की क़ीमत है नक़्द-ए-जान-ए-अज़ीज़ अगर ये बाइस-ए-कैफ़-ए-दवाम हो जाए रहीन-ए-यास रहें अहल-ए-आरज़ू कब तक कभी तो आप का दरबार आम हो जाए जो और कुछ हो तिरी दीद के सिवा मंज़ूर तो मुझ पे ख़्वाहिश-ए-जन्नत हराम हो जाए वो दूर ही से हमें देख लें यही है बहुत मगर क़ुबूल हमारा सलाम हो जाए अगर वो हुस्न-ए-दिल-आरा कभी हो जल्वा फ़रोश फ़रोग़-ए-नूर में गुम ज़र्फ़-ए-बाम हो जाए सुना है बरसर-ए-बख़ि़्शश है आज पीर मुग़ाँ हमें भी काश अता कोई जाम हो जाए तिरे करम पे है मौक़ूफ़ कामरानी-ए-शौक़ ये ना-तमाम इलाही तमाम हो जाए सितम के बाद करम है जफ़ा के बाद अता हमें है बस जो यही इल्तिज़ाम हो जाए अता हो सोज़ वो या रब जुनून-ए-'हसरत' को कि जिस से पुख़्ता ये सौदा-ए-ख़ाम हो जाए

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