ये फ़लक ये माह-ओ-अंजुम ये ज़मीन ये ज़माना तिरे हुस्न की हिकायत मिरे इश्क़ का फ़साना ये है इश्क़ की करामत ये कमाल-ए-शाइराना अभी मुँह से बात निकली अभी हो गई फ़साना...
इश्क़ ही तन्हा नहीं शोरीदा-सर मेरे लिए हुस्न भी बेताब है और किस क़दर मेरे लिए हाँ मुबारक अब है मेराज-ए-नज़र मेरे लिए जिस क़दर वो दूर-तर नज़दीक-तर मेरे लिए...
इश्क़ में ला-जवाब हैं हम लोग माहताब आफ़्ताब हैं हम लोग गरचे अहल-ए-शराब हैं हम लोग ये न समझो ख़राब हैं हम लोग...
दिल में किसी के राह किए जा रहा हूँ मैं कितना हसीं गुनाह किए जा रहा हूँ मैं दुनिया-ए-दिल तबाह किए जा रहा हूँ मैं सर्फ़-ए-निगाह-ओ-आह किए जा रहा हूँ मैं...
जिसे सय्याद ने कुछ गुल ने कुछ बुलबुल ने कुछ समझा चमन में कितनी मानी-ख़ेज़ थी इक ख़ामुशी मिरी...
वो काफ़िर आश्ना ना-आश्ना यूँ भी है और यूँ भी हमारी इब्तिदा ता इंतिहा यूँ भी है और यूँ भी तअज्जुब क्या अगर रस्म-ए-वफ़ा यूँ भी है और यूँ भी कि हुस्न ओ इश्क़ का हर मसअला यूँ भी है और यूँ भी...
जो अब भी न तकलीफ़ फ़रमाइएगा तो बस हाथ मलते ही रह जाइएगा निगाहों से छुप कर कहाँ जाइएगा जहाँ जाइएगा हमें पाइएगा...
ये मिस्रा काश नक़्श-ए-हर-दर-ओ-दीवार हो जाए जिसे जीना हो मरने के लिए तय्यार हो जाए वही मय-ख़्वार है जो इस तरह मय-ख़्वार हो जाए कि शीशा तोड़ दे और बे-पिए सरशार हो जाए...
न ग़रज़ किसी से न वास्ता मुझे काम अपने ही काम से तिरे ज़िक्र से तिरी फ़िक्र से तिरी याद से तिरे नाम से...
हर दम दुआएँ देना हर लहज़ा आहें भरना उन का भी काम करना अपना भी काम करना हाँ किस को है मयस्सर ये काम कर गुज़रना इक बाँकपन से जीना इक बाँकपन से मरना...
ये दिन बहार के अब के भी रास आ न सके कि ग़ुंचे खिल तो सके खिल के मुस्कुरा न सके मिरी तबाही-ए-दिल पर तो रहम खा न सके जो रौशनी में रहे रौशनी को पा न सके...
दिल को मिटा के दाग़-ए-तमन्ना दिया मुझे ऐ इश्क़ तेरी ख़ैर हो ये क्या दिया मुझे महशर में बात भी न ज़बाँ से निकल सकी क्या झुक के उस निगाह ने समझा दिया मुझे...
निगाहों का मरकज़ बना जा रहा हूँ मोहब्बत के हाथों लुटा जा रहा हूँ मैं क़तरा हूँ लेकिन ब-आग़ोश-ए-दरिया अज़ल से अबद तक बहा जा रहा हूँ...
जहल-ए-ख़िरद ने दिन ये दिखाए घट गए इंसाँ बढ़ गए साए हाए वो क्यूँकर दिल बहलाए ग़म भी जिस को रास न आए...
शब-ए-फ़िराक़ है और नींद आई जाती है कुछ इस में उन की तवज्जोह भी पाई जाती है ये उम्र-ए-इश्क़ यूँही क्या गँवाई जाती है हयात ज़िंदा हक़ीक़त बनाई जाती है...
कभी शाख़ ओ सब्ज़ा ओ बर्ग पर कभी ग़ुंचा ओ गुल ओ ख़ार पर मैं चमन में चाहे जहाँ रहूँ मिरा हक़ है फ़स्ल-ए-बहार पर मुझे दें न ग़ैज़ में धमकियाँ गिरें लाख बार ये बिजलियाँ मिरी सल्तनत ये ही आशियाँ मिरी मिलकियत ये ही चार पर...
आया न रास नाला-ए-दिल का असर मुझे अब तुम मिले तो कुछ नहीं अपनी ख़बर मुझे दिल ले के मुझ से देते हो दाग़-ए-जिगर मुझे ये बात भूलने की नहीं उम्र भर मुझे...