जहल-ए-ख़िरद ने दिन ये दिखाए
जहल-ए-ख़िरद ने दिन ये दिखाए घट गए इंसाँ बढ़ गए साए हाए वो क्यूँकर दिल बहलाए ग़म भी जिस को रास न आए ज़िद पर इश्क़ अगर आ जाए पानी छिड़के आग लगाए दिल पे कुछ ऐसा वक़्त पड़ा है भागे लेकिन राह न पाए कैसा मजाज़ और कैसी हक़ीक़त अपने ही जल्वे अपने ही साए झूटी है हर एक मसर्रत रूह अगर तस्कीन न पाए कार-ए-ज़माना जितना जितना बनता जाए बिगड़ता जाए ज़ब्त-ए-मोहब्बत शर्त-ए-मोहब्बत जी है कि ज़ालिम उमडा आए हुस्न वही है हुस्न जो ज़ालिम हाथ लगाए हाथ न आए नग़्मा वही है नग़्मा कि जिस को रूह सुने और रूह सुनाए राह-ए-जुनूँ आसान हुई है ज़ुल्फ़ ओ मिज़ा के साए साए

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