ये मिस्रा काश नक़्श-ए-हर-दर-ओ-दीवार हो जाए
ये मिस्रा काश नक़्श-ए-हर-दर-ओ-दीवार हो जाए जिसे जीना हो मरने के लिए तय्यार हो जाए वही मय-ख़्वार है जो इस तरह मय-ख़्वार हो जाए कि शीशा तोड़ दे और बे-पिए सरशार हो जाए दिल-ए-इंसाँ अगर शाइस्ता-ए-असरार हो जाए लब-ए-ख़ामोश-फ़ितरत ही लब-ए-गुफ़्तार हो जाए हर इक बेकार सी हस्ती ब-रू-ए-कार हो जाए जुनूँ की रूह-ए-ख़्वाबीदा अगर बेदार हो जाए सुना है हश्र में हर आँख उसे बे-पर्दा देखेगी मुझे डर है न तौहीन-ए-जमाल-ए-यार हो जाए हरीम-ए-नाज़ में उस की रसाई हो तो क्यूँकर हो कि जो आसूदा ज़ेर-ए-साया-ए-दीवार हो जाए मआज़-अल्लाह उस की वारदात-ए-ग़म मआज़-अल्लाह चमन जिस का वतन हो और चमन-बे-ज़ार हो जाए यही है ज़िंदगी तो ज़िंदगी से ख़ुद-कुशी अच्छी कि इंसाँ आलम-ए-इंसानियत पर बार हो जाए इक ऐसी शान पैदा कर कि बातिल थरथरा उट्ठे नज़र तलवार बन जाए नफ़स झंकार हो जाए ये रोज़ ओ शब ये सुब्ह ओ शाम ये बस्ती ये वीराना सभी बेदार हैं इंसाँ अगर बेदार हो जाए

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