Page 2 of 2

झुकी झुकी सी नज़र बे-क़रार है कि नहीं दबा दबा सा सही दिल में प्यार है कि नहीं तू अपने दिल की जवाँ धड़कनों को गिन के बता मिरी तरह तिरा दिल बे-क़रार है कि नहीं...

आज अँधेरा मिरी नस नस में उतर जाएगा आँखें बुझ जाएँगी बुझ जाएँगे एहसास ओ शुऊर और ये सदियों से जलता सा सुलगता सा वजूद इस से पहले कि सहर माथे पे शबनम छिड़के...

आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है आज की रात न फ़ुट-पाथ पे नींद आएगी सब उठो, मैं भी उठूँ तुम भी उठो, तुम भी उठो कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जाएगी...

जब भी चूम लेता हूँ उन हसीन आँखों को सौ चराग़ अँधेरे में झिलमिलाने लगते हैं ख़ुश्क ख़ुश्क होंटों में जैसे दिल खिंच आता है दिल में कितने आईने थरथराने लगते हैं...

बस इक झिजक है यही हाल-ए-दिल सुनाने में कि तेरा ज़िक्र भी आएगा इस फ़साने में...

अब और क्या तिरा बीमार बाप देगा तुझे बस इक दुआ कि ख़ुदा तुझ को कामयाब करे वो टाँक दे तिरे आँचल में चाँद और तारे तू अपने वास्ते जिस को भी इंतिख़ाब करे...

मैं ये सोच कर उस के दर से उठा था कि वो रोक लेगी मना लेगी मुझ को हवाओं में लहराता आता था दामन कि दामन पकड़ कर बिठा लेगी मुझ को...

झुकी झुकी सी नज़र बे-क़रार है कि नहीं दबा दबा सा सही दिल में प्यार है कि नहीं...

अब जिस तरफ़ से चाहे गुज़र जाए कारवाँ वीरानियाँ तो सब मिरे दिल में उतर गईं...

बहार आए तो मेरा सलाम कह देना मुझे तो आज तलब कर लिया है सहरा ने...

बेलचे लाओ खोलो ज़मीं की तहें मैं कहाँ दफ़्न हूँ कुछ पता तो चले...

की है कोई हसीन ख़ता हर ख़ता के साथ थोड़ा सा प्यार भी मुझे दे दो सज़ा के साथ गर डूबना ही अपना मुक़द्दर है तो सुनो डूबेंगे हम ज़रूर मगर नाख़ुदा के साथ...

ये अँधेरी रात ये सारी फ़ज़ा सोई हुई पत्ती पत्ती मंज़र-ए-ख़ामोश में खोई हुई मौजज़न है बहर-ए-ज़ुल्मत तीरगी का जोश है शाम ही से आज क़िंदील-ए-फ़लक ख़ामोश है...

मस्त घटा मंडलाई हुई है बाग़ पे मस्ती छाई हुई है झूम रही हैं आम की शाख़ें नींद सी जैसे आई हुई है...

मैं ढूँडता हूँ जिसे वो जहाँ नहीं मिलता नई ज़मीन नया आसमाँ नहीं मिलता नई ज़मीन नया आसमाँ भी मिल जाए नए बशर का कहीं कुछ निशाँ नहीं मिलता...

वो भी सराहने लगे अर्बाब-ए-फ़न के बाद दाद-ए-सुख़न मिली मुझे तर्क-ए-सुख़न के बाद दीवाना-वार चाँद से आगे निकल गए ठहरा न दिल कहीं भी तिरी अंजुमन के बाद...

रोज़ बढ़ता हूँ जहाँ से आगे फिर वहीं लौट के आ जाता हूँ बार-हा तोड़ चुका हूँ जिन को उन्हीं दीवारों से टकराता हूँ...

मिरे बेटे मिरी आँखें मिरे ब'अद उन को दे देना जिन्हों ने रेत में सर गाड़ रक्खे हैं और ऐसे मुतमइन हैं जैसे उन को न कोई देखता है और न कोई देख सकता है...

मैं ने तन्हा कभी उस को देखा नहीं फिर भी जब उस को देखा वो तन्हा मिला जैसे सहरा में चश्मा कहीं या समुंदर में मीनार-ए-नूर...

चीर के साल में दो बार ज़मीं का सीना दफ़्न हो जाता हूँ गुदगुदाते हैं जो सूरज के सुनहरे नाख़ुन फिर निकल आता हूँ...

इंसाँ की ख़्वाहिशों की कोई इंतिहा नहीं दो गज़ ज़मीं भी चाहिए दो गज़ कफ़न के बाद...

कोई तो सूद चुकाए कोई तो ज़िम्मा ले उस इंक़लाब का जो आज तक उधार सा है...

हाथ आ कर लगा गया कोई मेरा छप्पर उठा गया कोई लग गया इक मशीन में मैं भी शहर में ले के आ गया कोई...

क्या जाने किस की प्यास बुझाने किधर गईं इस सर पे झूम के जो घटाएँ गुज़र गईं दीवाना पूछता है ये लहरों से बार बार कुछ बस्तियाँ यहाँ थीं बताओ किधर गईं...

एक दो ही नहीं छब्बीस दिए एक इक कर के जलाए मैं ने एक दिया नाम का आज़ादी के उस ने जलते हुए होंटों से कहा...

जो इक ख़ुदा नहीं मिलता तो इतना मातम क्यूँ यहाँ तो कोई मिरा हम-ज़बाँ नहीं मिलता...

ज़िंदगी नाम है कुछ लम्हों का और उन में भी वही इक लम्हा जिस में दो बोलती आँखें चाय की प्याली से जब उट्ठीं...

तबीअत जब्रिया तस्कीन से घबराई जाती है हँसूँ कैसे हँसी कम-बख़्त तू मुरझाई जाती है बहुत चमका रहा हूँ ख़ाल-ओ-ख़त को सई-ए-रंगीं से मगर पज़मुर्दगी सी ख़ाल-ओ-ख़त पर छाई जाती है...

बस्ती में अपनी हिन्दू मुसलमाँ जो बस गए इंसाँ की शक्ल देखने को हम तरस गए...

उठ मिरी जान मिरे साथ ही चलना है तुझे क़ल्ब-ए-माहौल में लर्ज़ां शरर-ए-जंग हैं आज हौसले वक़्त के और ज़ीस्त के यक-रंग हैं आज आबगीनों में तपाँ वलवला-ए-संग हैं आज...

अब तुम आग़ोश-ए-तसव्वुर में भी आया न करो मुझ से बिखरे हुए गेसू नहीं देखे जाते सुर्ख़ आँखों की क़सम काँपती पलकों की क़सम थरथराते हुए आँसू नहीं देखे जाते...

अज़ीज़ माँ, मिरी हँसमुख, मिरी बहादुर माँ तमाम जौहर-ए-फ़ितरत जगा दिए तू ने मोहब्बत अपने चमन से, गुलों से, ख़ारों से मोहब्बतों के ख़ज़ाने लुटा दिए तू ने...

इतना तो ज़िंदगी में किसी के ख़लल पड़े हँसने से हो सुकून न रोने से कल पड़े...

इक यही सोज़-ए-निहाँ कुल मिरा सरमाया है दोस्तो मैं किसे ये सोज़-ए-निहाँ नज़्र करूँ कोई क़ातिल सर-ए-मक़्तल नज़र आता ही नहीं किस को दिल नज़्र करूँ और किसे जाँ नज़्र करूँ...

रहें न रिंद ये वाइज़ के बस की बात नहीं तमाम शहर है दो चार दस की बात नहीं...

ज़बाँ को तर्जुमान-ए-ग़म बनाऊँ किस तरह 'कैफ़ी' मैं बर्ग-ए-गुल से अंगारे उठाऊँ किस तरह 'कैफ़ी' समझ में किस की आए राज़ मेरे हिचकिचाने का अँधेरे में चला करता है हर नावक ज़माने का...