आवारा सज्दे
इक यही सोज़-ए-निहाँ कुल मिरा सरमाया है दोस्तो मैं किसे ये सोज़-ए-निहाँ नज़्र करूँ कोई क़ातिल सर-ए-मक़्तल नज़र आता ही नहीं किस को दिल नज़्र करूँ और किसे जाँ नज़्र करूँ तुम भी महबूब मिरे, तुम भी हो दिलदार मिरे आश्ना मुझ से मगर तुम भी नहीं, तुम भी नहीं ख़त्म है तुम पे मसीहा-नफ़सी, चारागरी महरम-ए-दर्द-ए-जिगर तुम भी नहीं तुम भी नहीं अपनी लाश आप उठाना कोई आसान नहीं दस्त-ओ-बाज़ू मिरे नाकारा हुए जाते हैं जिन से हर दौर में चमकी है तुम्हारी दहलीज़ आज सज्दे वही आवारा हुए जाते हैं दर्द-ए-मंज़िल थी, मगर ऐसी भी कुछ दूर न थी ले के फिरती रही रस्ते ही में वहशत मुझ को एक ज़ख़्म ऐसा न खाया कि बहार आ जाती दार तक ले के गया शौक़-ए-शहादत मुझ को राह में टूट गए पाँव तो मालूम हुआ जुज़ मिरे और मिरा राह-नुमा कोई नहीं एक के ब'अद ख़ुदा एक चला आता था कह दिया अक़्ल ने तंग आ के ख़ुदा कोई नहीं

Read Next