मस्त घटा मंडलाई हुई है
बाग़ पे मस्ती छाई हुई है
झूम रही हैं आम की शाख़ें
नींद सी जैसे आई हुई है
बोलता है रह रह के पपीहा
बर्क़ सी इक लहराई हुई है
लहके हुए हैं फूल शफ़क़ के
आतिश-ए-तर छलकाई हुई है
शेर मिरे बन बन के हुवैदा
क़ौस की हर अंगड़ाई हुई है
रेंगते हैं ख़ामोश तराने
मौज-ए-हवा बल खाई हुई है
रौनक़-ए-आलम सर है झुकाए
जैसे दुल्हन शर्माई हुई है
घास पे गुम-सुम बैठा है 'कैफ़ी'
याद किसी की आई हुई है