नुक़ूश-ए-हसरत मिटा के उठना, ख़ुशी का परचम उड़ा के उठना मिला के सर बैठना मुबारक तराना-ए-फ़त्ह गा के उठना ये गुफ़्तुगू गुफ़्तुगू नहीं है बिगड़ने बनने का मरहला है धड़क रहा है फ़ज़ा का सीना कि ज़िंदगी का मुआमला है...
शगुफ़्तगी का लताफ़त का शाहकार हो तुम फ़क़त बहार नहीं हासिल-ए-बहार हो तुम जो एक फूल में है क़ैद वो गुलिस्ताँ हो जो इक कली में है पिन्हाँ वो लाला-ज़ार हो तुम...
ये किस तरह याद आ रही हो ये ख़्वाब कैसा दिखा रही हो कि जैसे सच-मुच निगाह के सामने खड़ी मुस्कुरा रही हो ये जिस्म-ए-नाज़ुक, ये नर्म बाहें, हसीन गर्दन, सिडौल बाज़ू शगुफ़्ता चेहरा, सलोनी रंगत, घनेरा जूड़ा, सियाह गेसू...
कितनी रंगीं है फ़ज़ा कितनी हसीं है दुनिया कितना सरशार है ज़ौक़-ए-चमन-आराई आज इस सलीक़े से सजाई गई बज़्म-ए-गीती तू भी दीवार-ए-अजंता से उतर आई आज...
कोई ये कैसे बताए कि वो तन्हा क्यूँ है वो जो अपना था वही और किसी का क्यूँ है यही दुनिया है तो फिर ऐसी ये दुनिया क्यूँ है यही होता है तो आख़िर यही होता क्यूँ है...
आज सोचा तो आँसू भर आए मुद्दतें हो गईं मुस्कुराए हर क़दम पर उधर मुड़ के देखा उन की महफ़िल से हम उठ तो आए...
शोर यूँही न परिंदों ने मचाया होगा कोई जंगल की तरफ़ शहर से आया होगा पेड़ के काटने वालों को ये मालूम तो था जिस्म जल जाएँगे जब सर पे न साया होगा...
मेरे काँधे पे बैठा कोई पढ़ता रहता है इंजील ओ क़ुरआन ओ वेद मक्खियाँ कान में भिनभिनाती हैं ज़ख़्मी हैं कान...
कभी जुमूद कभी सिर्फ़ इंतिशार सा है जहाँ को अपनी तबाही का इंतिज़ार सा है मनु की मछली न कशति-ए-नूह और ये फ़ज़ा कि क़तरे क़तरे में तूफ़ान बे-क़रार सा है...
तुम परेशान न हो, बाब-ए-करम वा न करो और कुछ देर पुकारूँगा चला जाऊँगा उसी कूचे में जहाँ चाँद उगा करते हैं शब-ए-तारीक गुज़ारूँगा, चला जाऊँगा...
रूह बेचैन है इक दिल की अज़िय्यत क्या है दिल ही शोला है तो ये सोज़-ए-मोहब्बत क्या है वो मुझे भूल गई इस की शिकायत क्या है रंज तो ये है कि रो रो के भुलाया होगा...
राम बन-बास से जब लौट के घर में आए याद जंगल बहुत आया जो नगर में आए रक़्स-ए-दीवानगी आँगन में जो देखा होगा छे दिसम्बर को श्री राम ने सोचा होगा...
मुद्दतों मैं इक अंधे कुएँ में असीर सर पटकता रहा गिड़गिड़ाता रहा रौशनी चाहिए، चाँदनी चाहिए، ज़िंदगी चाहिए रौशनी प्यार की, चाँदनी यार की, ज़िंदगी दार की...
ये साँप आज जो फन उठाए मिरे रास्ते में खड़ा है पड़ा था क़दम चाँद पर मेरा जिस दिन उसी दिन इसे मार डाला था मैं ने...
कहीं से लौट के हम लड़खड़ाए हैं क्या क्या सितारे ज़ेर-ए-क़दम रात आए हैं क्या क्या नशेब-ए-हस्ती से अफ़्सोस हम उभर न सके फ़राज़-ए-दार से पैग़ाम आए हैं क्या क्या...
रहने को सदा दहर में आता नहीं कोई तुम जैसे गए ऐसे भी जाता नहीं कोई डरता हूँ कहीं ख़ुश्क न हो जाए समुंदर राख अपनी कभी आप बहाता नहीं कोई...
सुना करो मिरी जाँ इन से उन से अफ़्साने सब अजनबी हैं यहाँ कौन किस को पहचाने यहाँ से जल्द गुज़र जाओ क़ाफ़िले वालो हैं मेरी प्यास के फूंके हुए ये वीराने...
लो पौ फटी वो छुप गई तारों की अंजुमन लो जाम-ए-महर से वो छलकने लगी किरन खिचने लगा निगाह में फ़ितरत का बाँकपन जल्वे ज़मीं पे बरसे ज़मीं बन गई दुल्हन...
इतना तो ज़िंदगी में किसी के ख़लल पड़े हँसने से हो सुकून न रोने से कल पड़े जिस तरह हँस रहा हूँ मैं पी पी के गर्म अश्क यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े...
चाँद टूटा पिघल गए तारे क़तरा क़तरा टपक रही है रात पलकें आँखों पे झुकती आती हैं अँखड़ियों में खटक रही है रात...
प्यार का जश्न नई तरह मनाना होगा ग़म किसी दिल में सही ग़म को मिटाना होगा काँपते होंटों पे पैमान-ए-वफ़ा क्या कहना तुझ को लाई है कहाँ लग़्ज़िश-ए-पा क्या कहना...
ये सेहहत-बख़्श तड़का ये सहर की जल्वा-सामानी उफ़ुक़ सारा बना जाता है दामान-ए-चमन जैसे छलकती रौशनी तारीकियों पे छाई जाती है उड़ाए नाज़ियत की लाश पर कोई कफ़न जैसे...
एक गर्दन पे सैकड़ों चेहरे और हर चेहरे पर हज़ारों दाग़ और हर दाग़ बंद दरवाज़ा रौशनी इन से आ नहीं सकती...
ये बुझी सी शाम ये सहमी हुई परछाइयाँ ख़ून-ए-दिल भी इस फ़ज़ा में रंग भर सकता नहीं आ उतर आ काँपते होंटों पे ऐ मायूस आह सक़्फ़-ए-ज़िंदाँ पर कोई पर्वाज़ कर सकता नहीं...
ख़ार-ओ-ख़स तो उठें रास्ता तो चले मैं अगर थक गया क़ाफ़िला तो चले चाँद सूरज बुज़ुर्गों के नक़्श-ए-क़दम ख़ैर बुझने दो उन को हवा तो चले...
पत्थर के ख़ुदा वहाँ भी पाए हम चाँद से आज लौट आए दीवारें तो हर तरफ़ खड़ी हैं क्या हो गए मेहरबान साए...
ये बरसात ये मौसम-ए-शादमानी ख़स-ओ-ख़ार पर फट पड़ी है जवानी भड़कता है रह रह के सोज़-ए-मोहब्बत झमाझम बरसता है पुर-शोर पानी...
जो वो मिरे न रहे मैं भी कब किसी का रहा बिछड़ के उन से सलीक़ा न ज़िंदगी का रहा लबों से उड़ गया जुगनू की तरह नाम उस का सहारा अब मिरे घर में न रौशनी का रहा...
दोस्त! मैं देख चुका ताज-महल .....वापस चल मरमरीं मरमरीं फूलों से उबलता हीरा चाँद की आँच में दहके हुए सीमीं मीनार...
ऐ हमा-रंग हमा-नूर हमा-सोज़-ओ-गुदाज़ बज़्म-ए-महताब से आने की ज़रूरत क्या थी तू जहाँ थी उसी जन्नत में निखरता तिरा रूप इस जहन्नम को बसाने की ज़रूरत क्या थी...
लाई फिर इक लग़्ज़िश-ए-मस्ताना तेरे शहर में फिर बनेंगी मस्जिदें मय-ख़ाना तेरे शहर में आज फिर टूटेंगी तेरे घर की नाज़ुक खिड़कियाँ आज फिर देखा गया दीवाना तेरे शहर में...
वो सर्द रात जबकि सफ़र कर रहा था मैं रंगीनियों से जर्फ़-ए-नज़र भर रहा था मैं तेज़ी से जंगलों में उड़ी जा रही थी रेल ख़्वाबीदा काएनात को चौंका रही थी रेल...
तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो क्या ग़म है जिस को छुपा रहे हो आँखों में नमी हँसी लबों पर क्या हाल है क्या दिखा रहे हो...