आख़िरी रात
चाँद टूटा पिघल गए तारे क़तरा क़तरा टपक रही है रात पलकें आँखों पे झुकती आती हैं अँखड़ियों में खटक रही है रात आज छेड़ो न कोई अफ़्साना आज की रात हम को सोने दो खुलते जाते हैं सिमटे-सुकड़े जाल घुलते जाते हैं ख़ून में बादल अपने गुलनार पँख फैलाए आ रहे हैं इसी तरफ़ जंगल गुल करो शम्अ, रख दो पैमाना आज की रात हम को सोने दो शाम से पहले मर चुका था शहर कौन दरवाज़ा खटखटाता है और ऊँची करो ये दीवारें शोर आँगन में आया जाता है कह दो है आज बंद मय-ख़ाना आज की रात हम को सोने दो जिस्म ही जिस्म हैं, कफ़न ही कफ़न बात सुनते न सर झुकाते हैं अम्न की ख़ैर, कोतवाल की ख़ैर मुर्दे क़ब्रों से निकले आते हैं कोई अपना न कोई बेगाना आज की रात हम को सोने दो कोई कहता था, ठीक कहता था सर-कशी बन गई है सब का शिआर क़त्ल पर जिन को ए'तिराज़ न था दफ़्न होने को क्यूँ नहीं तय्यार होश-मंदी है आज सो जाना आज की रात हम को सोने दो

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