ताज-महल
दोस्त! मैं देख चुका ताज-महल .....वापस चल मरमरीं मरमरीं फूलों से उबलता हीरा चाँद की आँच में दहके हुए सीमीं मीनार ज़ेहन-ए-शाएर से ये करता हुआ चश्मक पैहम एक मलिका का ज़िया-पोश ओ फ़ज़ा-ताब मज़ार ख़ुद ब-ख़ुद फिर गए नज़रों में ब-अंदाज़-ए-सवाल वो जो रस्तों पे पड़े रहते हैं लाशों की तरह ख़ुश्क हो कर जो सिमट जाते हैं बे-रस आसाब धूप में खोपड़ियाँ बजती हैं ताशों की तरह दोस्त मैं देख चुका ताज-महल .....वापस चल ये धड़कता हुआ गुम्बद में दिल-ए-शाहजहाँ ये दर-ओ-बाम पे हँसता हुआ मलिका का शबाब जगमगाता है हर इक तह से मज़ाक़-ए-तफ़रीक़ और तारीख़ उढ़ाती है मोहब्बत की नक़ाब चाँदनी और ये महल आलम-ए-हैरत की क़सम दूध की नहर में जिस तरह उबाल आ जाए ऐसे सय्याह की नज़रों में खुपे क्या ये समाँ जिस को फ़रहाद की क़िस्मत का ख़याल आ जाए दोस्त मैं देख चुका ताज-महल .....वापस चल ये दमकती हुई चौखट ये तिला-पोश कलस इन्हीं जल्वों ने दिया क़ब्र-परस्ती को रिवाज माह ओ अंजुम भी हुए जाते हैं मजबूर-ए-सुजूद वाह आराम-गह-ए-मलिका-ए-माबूद-मिज़ाज दीदनी क़स्र नहीं दीदनी तक़्सीम है ये रू-ए-हस्ती पे धुआँ क़ब्र पे रक़्स-ए-अनवार फैल जाए इसी रौज़ा का जो सिमटा दामन कितने जाँ-दार जनाज़ों को भी मिल जाए मज़ार दोस्त मैं देख चुका ताज-महल .....वापस चल

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