तलाश
ये बुझी सी शाम ये सहमी हुई परछाइयाँ ख़ून-ए-दिल भी इस फ़ज़ा में रंग भर सकता नहीं आ उतर आ काँपते होंटों पे ऐ मायूस आह सक़्फ़-ए-ज़िंदाँ पर कोई पर्वाज़ कर सकता नहीं झिलमिलाए मेरी पलकों पे मह-ओ-ख़ुर भी तो क्या? इस अँधेरे घर में इक तारा उतर सकता नहीं लूट ली ज़ुल्मत ने रू-ए-हिन्द की ताबिंदगी रात के काँधे पे सर रख कर सितारे सो गए वो भयानक आँधियाँ, वो अबतरी, वो ख़लफ़शार कारवाँ बे-राह हो निकला, मुसाफ़िर खो गए हैं इसी ऐवान-ए-बे-दर में यक़ीनन रहनुमा आ के क्यूँ दीवार तक नक़्श-ए-क़दम गुम हो गए देख ऐ जोश-ए-अमल वो सक़्फ़ ये दीवार है एक रौज़न खोल देना भी कोई दुश्वार है

Read Next