ये मस्त मस्त घटा, ये भरी भरी बरसात तमाम हद्द-ए-नज़र तक घुलावटों का समाँ फ़ज़ा-ए-शाम में डोरे से पड़ते जाते हैं जिधर निगाह करें कुछ धुआँ सा उठता है...
जुनून-ए-कारगर है और मैं हूँ हयात-ए-बे-ख़बर है और मैं हूँ मिटा कर दिल निगाह-ए-अव्वलीं से तक़ाज़ा-ए-दिगर है और मैं हूँ...
इक रोज़ हुए थे कुछ इशारात ख़फ़ी से आशिक़ हैं हम उस नर्गिस-ए-राना के जभी से करने को हैं दूर आज तो तौ ये रोग ही जी से अब रक्खेंगे हम प्यार न तुम से न किसी से...
तेज़ एहसास-ए-ख़ुदी दरकार है ज़िंदगी को ज़िंदगी दरकार है जो चढ़ा जाए ख़ुमिस्तान-ए-जहाँ हाँ वही लब-तिश्नगी दरकार है...
कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम उस निगाह-ए-आश्ना को क्या समझ बैठे थे हम रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गए वाह-री ग़फ़लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम...
आज भी क़ाफ़िला-ए-इश्क़ रवाँ है कि जो था वही मील और वही संग-ए-निशाँ है कि जो था फिर तिरा ग़म वही रुस्वा-ए-जहाँ है कि जो था फिर फ़साना ब-हदीस-ए-दिगराँ है कि जो था...
मिरी सदा है गुल-ए-शम्-ए-शाम-ए-आज़ादी सुना रहा हूँ दिलों को पयाम आज़ादी लहू वतन के शहीदों का रंग लाया है उछल रहा है ज़माना में नाम-ए-आज़ादी...
सियाह पेड़ हैं अब आप अपनी परछाईं ज़मीं से ता-मह-ओ-अंजुम सुकूत के मीनार जिधर निगाह करें इक अथाह गुम-शुदगी इक एक कर के फ़सुर्दा चराग़ों की पलकें...
हिज्र-ओ-विसाल-ए-यार का पर्दा उठा दिया ख़ुद बढ़ के इश्क़ ने मुझे मेरा पता दिया गर्द-ओ-ग़ुबार-ए-हस्ती-ए-फ़ानी उड़ा दिया ऐ कीमिय-ए-इश्क़ मुझे क्या बना दिया...
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं...
वक़्त-ए-ग़ुरूब आज करामात हो गई ज़ुल्फ़ों को उस ने खोल दिया रात हो गई कल तक तो उस में ऐसी करामत न थी कोई वो आँख आज क़िबला-ए-हाजात हो गई...
रस्म-ओ-राह-ए-दहर क्या जोश-ए-मोहब्बत भी तो हो टूट जाती है हर इक ज़ंजीर वहशत भी तो हो ज़िंदगी क्या मौत क्या दो करवटें हैं इश्क़ की सोने वाले चौंक उट्ठेंगे क़यामत भी तो हो...
शाम-ए-ग़म कुछ उस निगाह-ए-नाज़ की बातें करो बे-ख़ुदी बढ़ती चली है राज़ की बातें करो ये सुकूत-ए-नाज़ ये दिल की रगों का टूटना ख़ामुशी में कुछ शिकस्त-ए-साज़ की बातें...
सर-ज़मीन-ए-हिंद पर अक़्वाम-ए-आलम के 'फ़िराक़' क़ाफ़िले बसते गए हिन्दोस्ताँ बनता गया...
पर्दा-ए-लुत्फ़ में ये ज़ुल्म-ओ-सितम क्या कहिए हाए ज़ालिम तिरा अंदाज़-ए-करम क्या कहिए...
मेरी घुट्टी में पड़ी थी हो के हल उर्दू ज़बाँ जो भी मैं कहता गया हुस्न-ए-बयाँ बनता गया...
कुछ क़फ़स की तीलियों से छन रहा है नूर सा कुछ फ़ज़ा कुछ हसरत-ए-परवाज़ की बातें करो...