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ये मस्त मस्त घटा, ये भरी भरी बरसात तमाम हद्द-ए-नज़र तक घुलावटों का समाँ फ़ज़ा-ए-शाम में डोरे से पड़ते जाते हैं जिधर निगाह करें कुछ धुआँ सा उठता है...

जुनून-ए-कारगर है और मैं हूँ हयात-ए-बे-ख़बर है और मैं हूँ मिटा कर दिल निगाह-ए-अव्वलीं से तक़ाज़ा-ए-दिगर है और मैं हूँ...

इक रोज़ हुए थे कुछ इशारात ख़फ़ी से आशिक़ हैं हम उस नर्गिस-ए-राना के जभी से करने को हैं दूर आज तो तौ ये रोग ही जी से अब रक्खेंगे हम प्यार न तुम से न किसी से...

अब तो उन की याद भी आती नहीं कितनी तन्हा हो गईं तन्हाइयाँ...

तेज़ एहसास-ए-ख़ुदी दरकार है ज़िंदगी को ज़िंदगी दरकार है जो चढ़ा जाए ख़ुमिस्तान-ए-जहाँ हाँ वही लब-तिश्नगी दरकार है...

कह दिया तू ने जो मासूम तो हम हैं मासूम कह दिया तू ने गुनहगार गुनहगार हैं हम...

इसी खंडर में कहीं कुछ दिए हैं टूटे हुए इन्हीं से काम चलाओ बड़ी उदास है रात...

हज़ार बार ज़माना इधर से गुज़रा है नई नई सी है कुछ तेरी रहगुज़र फिर भी...

ग़रज़ कि काट दिए ज़िंदगी के दिन ऐ दोस्त वो तेरी याद में हों या तुझे भुलाने में...

'ग़ालिब' ओ 'मीर' 'मुसहफ़ी' हम भी 'फ़िराक़' कम नहीं...

'फ़िराक़' दौड़ गई रूह सी ज़माने में कहाँ का दर्द भरा था मिरे फ़साने में...

एक रंगीनी-ए-ज़ाहिर है गुलिस्ताँ में अगर एक शादाबी-ए-पिन्हाँ है बयाबानों में...

रात भी नींद भी कहानी भी हाए क्या चीज़ है जवानी भी...

लहू वतन के शहीदों का रंग लाया है उछल रहा है ज़माने में नाम-ए-आज़ादी...

कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम उस निगाह-ए-आश्ना को क्या समझ बैठे थे हम रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गए वाह-री ग़फ़लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम...

आज भी क़ाफ़िला-ए-इश्क़ रवाँ है कि जो था वही मील और वही संग-ए-निशाँ है कि जो था फिर तिरा ग़म वही रुस्वा-ए-जहाँ है कि जो था फिर फ़साना ब-हदीस-ए-दिगराँ है कि जो था...

मिरी सदा है गुल-ए-शम्-ए-शाम-ए-आज़ादी सुना रहा हूँ दिलों को पयाम आज़ादी लहू वतन के शहीदों का रंग लाया है उछल रहा है ज़माना में नाम-ए-आज़ादी...

जिस में हो याद भी तिरी शामिल हाए उस बे-ख़ुदी को क्या कहिए...

सियाह पेड़ हैं अब आप अपनी परछाईं ज़मीं से ता-मह-ओ-अंजुम सुकूत के मीनार जिधर निगाह करें इक अथाह गुम-शुदगी इक एक कर के फ़सुर्दा चराग़ों की पलकें...

फ़ज़ा तबस्सुम-ए-सुब्ह-ए-बहार थी लेकिन पहुँच के मंज़िल-ए-जानाँ पे आँख भर आई...

देवताओं का ख़ुदा से होगा काम आदमी को आदमी दरकार है...

हिज्र-ओ-विसाल-ए-यार का पर्दा उठा दिया ख़ुद बढ़ के इश्क़ ने मुझे मेरा पता दिया गर्द-ओ-ग़ुबार-ए-हस्ती-ए-फ़ानी उड़ा दिया ऐ कीमिय-ए-इश्क़ मुझे क्या बना दिया...

बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं...

एक मुद्दत से तिरी याद भी आई न हमें और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं...

वक़्त-ए-ग़ुरूब आज करामात हो गई ज़ुल्फ़ों को उस ने खोल दिया रात हो गई कल तक तो उस में ऐसी करामत न थी कोई वो आँख आज क़िबला-ए-हाजात हो गई...

मुद्दतें गुज़रीं तिरी याद भी आई न हमें और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं...

साँस लेती है वो ज़मीन 'फ़िराक़' जिस पे वो नाज़ से गुज़रते हैं...

रस्म-ओ-राह-ए-दहर क्या जोश-ए-मोहब्बत भी तो हो टूट जाती है हर इक ज़ंजीर वहशत भी तो हो ज़िंदगी क्या मौत क्या दो करवटें हैं इश्क़ की सोने वाले चौंक उट्ठेंगे क़यामत भी तो हो...

शाम-ए-ग़म कुछ उस निगाह-ए-नाज़ की बातें करो बे-ख़ुदी बढ़ती चली है राज़ की बातें करो ये सुकूत-ए-नाज़ ये दिल की रगों का टूटना ख़ामुशी में कुछ शिकस्त-ए-साज़ की बातें...

सर-ज़मीन-ए-हिंद पर अक़्वाम-ए-आलम के 'फ़िराक़' क़ाफ़िले बसते गए हिन्दोस्ताँ बनता गया...

रोने वाले हुए चुप हिज्र की दुनिया बदली शम्अ बे-नूर हुई सुब्ह का तारा निकला...

क़ुर्ब ही कम है न दूरी ही ज़ियादा लेकिन आज वो रब्त का एहसास कहाँ है कि जो था...

पर्दा-ए-लुत्फ़ में ये ज़ुल्म-ओ-सितम क्या कहिए हाए ज़ालिम तिरा अंदाज़-ए-करम क्या कहिए...

मेरी घुट्टी में पड़ी थी हो के हल उर्दू ज़बाँ जो भी मैं कहता गया हुस्न-ए-बयाँ बनता गया...

न कोई वादा न कोई यक़ीं न कोई उम्मीद मगर हमें तो तिरा इंतिज़ार करना था...

मज़हब की ख़राबी है न अख़्लाक़ की पस्ती दुनिया के मसाइब का सबब और ही कुछ है...

मंज़िलें गर्द के मानिंद उड़ी जाती हैं वही अंदाज़-ए-जहान-ए-गुज़राँ है कि जो था...

मौत का भी इलाज हो शायद ज़िंदगी का कोई इलाज नहीं...

मैं देर तक तुझे ख़ुद ही न रोकता लेकिन तू जिस अदा से उठा है उसी का रोना है...

कुछ क़फ़स की तीलियों से छन रहा है नूर सा कुछ फ़ज़ा कुछ हसरत-ए-परवाज़ की बातें करो...