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सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं लेकिन इस तर्क-ए-मोहब्बत का भरोसा भी नहीं...

ये शाम इक आईना-ए-नील-गूँ ये नम ये महक ये मंज़रों की झलक खेत बाग़ दरिया गाँव वो कुछ सुलगते हुए कुछ सुलगने वाले अलाव सियाहियों का दबे-पाँव आसमाँ से नुज़ूल...

आने वाली नस्लें तुम पर फ़ख़्र करेंगी हम-असरो जब भी उन को ध्यान आएगा तुम ने 'फ़िराक़' को देखा है...

बस्तियाँ ढूँढ रही हैं उन्हें वीरानों में वहशतें बढ़ गईं हद से तिरे दीवानों में निगह-ए-नाज़ न दीवानों न फ़र्ज़ानों में जानकार एक वही है मगर अन-जानों में...

बहसें छिड़ी हुई हैं हयात-ओ-ममात की सौ बात बन गई है 'फ़िराक़' एक बात की साज़-नवा-ए-दर्द हिजाबात-ए-दहर में कितनी दुखी हुई हैं रगें काएनात की...

ये कौन मुस्कुराहटों का कारवाँ लिए हुए शबाब-ए-शेर-ओ-रंग-ओ-नूर का धुआँ लिए हुए धुआँ कि बर्क़-ए-हुस्न का महकता शोला है कोई चटीली ज़िंदगी की शादमानियाँ लिए हुए...

आँखों में जो बात हो गई है इक शरह-ए-हयात हो गई है जब दिल की वफ़ात हो गई है हर चीज़ की रात हो गई है...

कोई पैग़ाम-ए-मोहब्बत लब-ए-एजाज़ तो दे मौत की आँख भी खुल जाएगी आवाज़ तो दे मक़्सद-ए-इश्क़ हम-आहंगी-ए-जुज़्व-ओ-कुल है दर्द ही दर्द सही दिल बू-ए-दम-साज़ तो दे...

लुत्फ़-सामाँ इताब-ए-यार भी है महरम-ए-इश्क़ शर्मसार भी है सुस्त-पैमान ओ बे-नियाज़ सही हुस्न तस्वीर-ए-इंतिज़ार भी है...

'फ़िराक़' इक नई सूरत निकल तो सकती है ब-क़ौल उस आँख के दुनिया बदल तो सकती है तिरे ख़याल को कुछ चुप सी लग गई वर्ना कहानियों से शब-ए-ग़म बहल तो सकती है...

मय-कदे में आज इक दुनिया को इज़्न-ए-आम था दौर-ए-जाम-ए-बे-ख़ुदी बेगाना-ए-अय्याम था रूह लर्ज़ां आँख महव-ए-दीद दिल का नाम था इश्क़ का आग़ाज़ भी शाइस्ता-ए-अंजाम था...

इक उम्र कट गई है तिरे इंतिज़ार में ऐसे भी हैं कि कट न सकी जिन से एक रात...

बहुत हसीन है दोशीज़गी-ए-हुस्न मगर अब आ गए हो तो आओ तुम्हें ख़राब करें...

ये नर्म नर्म हवा झिलमिला रहे हैं चराग़ तिरे ख़याल की ख़ुशबू से बस रहे हैं दिमाग़ दिलों को तेरे तबस्सुम की याद यूँ आई कि जगमगा उठें जिस तरह मंदिरों में चराग़...

कहाँ का वस्ल तन्हाई ने शायद भेस बदला है तिरे दम भर के मिल जाने को हम भी क्या समझते हैं...

सितारों से उलझता जा रहा हूँ शब-ए-फ़ुर्क़त बहुत घबरा रहा हूँ तिरे ग़म को भी कुछ बहला रहा हूँ जहाँ को भी समझता जा रहा हूँ...

हो के सर-ता-ब-क़दम आलम-ए-असरार चला जो चला मय-कदा-ए-इश्क़ से सरशार चला हमरह-ए-हुस्न इक अंबोह-ए-ख़रीदार चला साथ इस जिंस के बाज़ार का बाज़ार चला...

आए थे हँसते खेलते मय-ख़ाने में 'फ़िराक़' जब पी चुके शराब तो संजीदा हो गए...

ज़ेर-ओ-बम से साज़-ए-ख़िलक़त के जहाँ बनता गया ये ज़मीं बनती गई ये आसमाँ बनता गया दास्तान-ए-जौर-ए-बेहद ख़ून से लिखता रहा क़तरा क़तरा अश्क-ए-ग़म का बे-कराँ बनता गया...

तुम्हें क्यूँकर बताएँ ज़िंदगी को क्या समझते हैं समझ लो साँस लेना ख़ुद-कुशी करना समझते हैं किसी बदमस्त को राज़-आश्ना सब का समझते हैं निगाह-ए-यार तुझ को क्या बताएँ क्या समझते हैं...

असर भी ले रहा हूँ तेरी चुप का तुझे क़ाइल भी करता जा रहा हूँ...

किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी ये हुस्न ओ इश्क़ तो धोका है सब मगर फिर भी हज़ार बार ज़माना इधर से गुज़रा है नई नई सी है कुछ तेरी रहगुज़र फिर भी...

अब दौर-ए-आसमाँ है न दौर-ए-हयात है ऐ दर्द-ए-हिज्र तू ही बता कितनी रात है हर काएनात से ये अलग काएनात है हैरत-सरा-ए-इश्क़ में दिन है न रात है...

ये मौत-ओ-अदम कौन-ओ-मकाँ और ही कुछ है सुन ले कि मिरा नाम-ओ-निशाँ और ही कुछ है इतना तो यक़ीं है कि वही हैं तिरी आँखें इस पर भी मगर वहम-ओ-गुमाँ और ही कुछ है...

बहसें छिड़ी हुई हैं हयात ओ ममात की सौ बात बन गई है 'फ़िराक़' एक बात की...

देख रफ़्तार-ए-इंक़लाब 'फ़िराक़' कितनी आहिस्ता और कितनी तेज़...

ऐ सोज़-ए-इश्क़ तू ने मुझे क्या बना दिया मेरी हर एक साँस मुनाजात हो गई...

कमी न की तिरे वहशी ने ख़ाक उड़ाने में जुनूँ का नाम उछलता रहा ज़माने में 'फ़िराक़' दौड़ गई रूह सी ज़माने में कहाँ का दर्द भरा था मिरे फ़साने में...

निगाह-ए-नाज़ ने पर्दे उठाए हैं क्या क्या हिजाब अहल-ए-मोहब्बत को आए हैं क्या क्या जहाँ में थी बस इक अफ़्वाह तेरे जल्वों की चराग़-ए-दैर-ओ-हरम झिलमिलाए हैं क्या क्या...

इनायत की करम की लुत्फ़ की आख़िर कोई हद है कोई करता रहेगा चारा-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर कब तक...

बहुत दिनों में मोहब्बत को ये हुआ मालूम जो तेरे हिज्र में गुज़री वो रात रात हुई...

रात भी नींद भी कहानी भी हाए क्या चीज़ है जवानी भी एक पैग़ाम-ए-ज़िंदगानी भी आशिक़ी मर्ग-ए-ना-गहानी भी...

शजर हजर पे हैं ग़म की घटाएँ छाई हुई सुबुक-ख़िराम हवाओं को नींद आई हुई रगें ज़मीं के मनाज़िर की पड़ चलीं ढीली ये ख़स्ता-हाली ये दरमांदगी ये सन्नाटा...

अब याद-ए-रफ़्तगाँ की भी हिम्मत नहीं रही यारों ने कितनी दूर बसाई हैं बस्तियाँ...

इश्क़ की मायूसियों में सोज़-ए-पिन्हाँ कुछ नहीं इस हवा में ये चराग़-ए-ज़ेर-ए-दामाँ कुछ नहीं क्या है देखो हसरत-ए-सैर-ए-गुलिस्ताँ कुछ नहीं कुछ नहीं ऐ सकिनान-ए-कुंज-ए-ज़िंदाँ कुछ नहीं...

बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं मिरी नज़रें भी ऐसे क़ातिलों का जान ओ ईमाँ हैं निगाहें मिलते ही जो जान और ईमान लेते हैं...

सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं लेकिन इस तर्क-ए-मोहब्बत का भरोसा भी नहीं दिल की गिनती न यगानों में न बेगानों में लेकिन उस जल्वा-गह-ए-नाज़ से उठता भी नहीं...

हर नाला तिरे दर्द से अब और ही कुछ है हर नग़्मा सर-ए-बज़्म-ए-तरब और ही कुछ है अरबाब-ए-वफ़ा जान भी देने को हैं तयार हस्ती का मगर हुस्न-ए-तलब और ही कुछ है...

जौर-ओ-बे-मेहरी-ए-इग़्माज़ पे क्या रोता है मेहरबाँ भी कोई हो जाएगा जल्दी क्या है खो दिया तुम को तो हम पूछते फिरते हैं यही जिस की तक़दीर बिगड़ जाए वो करता क्या है...

वो चुप-चाप आँसू बहाने की रातें वो इक शख़्स के याद आने की रातें शब-ए-मह की वो ठंडी आँचें वो शबनम तिरे हुस्न के रस्मसाने की रातें...