बहसें छिड़ी हुई हैं हयात-ओ-ममात की
बहसें छिड़ी हुई हैं हयात-ओ-ममात की सौ बात बन गई है 'फ़िराक़' एक बात की साज़-नवा-ए-दर्द हिजाबात-ए-दहर में कितनी दुखी हुई हैं रगें काएनात की रख ली जिन्हों ने कशमकश-ए-ज़िंदगी की लाज बे-दर्दियाँ न पूछिए उन से हयात की यूँ फ़र्त-ए-बे-ख़ुदी से मोहब्बत में जान दे तुझ को भी कुछ ख़बर न हो इस वारदात की है इश्क़ उस तबस्सुम-ए-जाँ-बख़्श का शहीद रंगीनियाँ लिए है जो सुब्ह-ए-हयात की छेड़ा है दर्द-ए-इश्क़ ने तार-ए-रग-ए-अदम सूरत पकड़ चली हैं नवाएँ हयात की शाम-ए-अबद को जल्वा-ए-सुब्ह-ए-बहार दे रूदाद छेड़ ज़िंदगी-ए-बे-सबात की उस बज़्म-ए-बे-ख़ुदी में वजूद-ए-अदम कहाँ चलती नहीं है साँस हयात-ओ-ममात की सौ दर्द इक तबस्सुम-ए-पिन्हाँ में बंद हैं तस्वीर हूँ 'फ़िराक़' नशात-ए-हयात की

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