कोई फूल धूप की पत्तियों में हरे रिबन से बंधा हुआ वो ग़ज़ल का लहजा नया नया न कहा हुआ न सुना हुआ जिसे ले गई है अभी हवा वो वरक़ था दिल की किताब का कहीं आँसुओं से मिटा हुआ कहीं आँसुओं से लिखा हुआ...
हमारे पास तो आओ बड़ा अंधेरा है कहीं न छोड़ के जाओ बड़ा अंधेरा है उदास कर गए बे-साख़्ता लतीफ़े भी अब आँसुओं से रुलाओ बड़ा अँधेरा है...
यूँही बे-सबब न फिरा करो कोई शाम घर में रहा करो वो ग़ज़ल की सच्ची किताब है उसे चुपके चुपके पढ़ा करो कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो...
किसी की याद में पलकें ज़रा भिगो लेते उदास रात की तन्हाइयों में रो लेते दुखों का बोझ अकेले नहीं सँभलता है कहीं वो मिलता तो उस से लिपट के रो लेते...
भीगी हुई आँखों का ये मंज़र न मिलेगा घर छोड़ के मत जाओ कहीं घर न मिलेगा फिर याद बहुत आएगी ज़ुल्फ़ों की घनी शाम जब धूप में साया कोई सर पर न मिलेगा...
सोचा नहीं अच्छा बुरा देखा सुना कुछ भी नहीं माँगा ख़ुदा से रात दिन तेरे सिवा कुछ भी नहीं सोचा तुझे देखा तुझे चाहा तुझे पूजा तुझे मेरी ख़ता मेरी वफ़ा तेरी ख़ता कुछ भी नहीं...
मिरी ज़बाँ पे नए ज़ाइक़ों के फल लिख दे मिरे ख़ुदा तू मिरे नाम इक ग़ज़ल लिख दे मैं चाहता हूँ ये दुनिया वो चाहता है मुझे ये मसअला बड़ा नाज़ुक है कोई हल लिख दे...
बड़े ताजिरों की सताई हुई ये दुनिया दुल्हन है जलाई हुई भरी दोपहर का खिला फूल है पसीने में लड़की नहाई हुई...
पहला सा वो ज़ोर नहीं है मेरे दुख की सदाओं में शायद पानी नहीं रहा है अब प्यासे दरियाओं में जिस बादल की आस में जोड़े खोल लिए हैं सुहागन ने वो पर्बत से टकरा कर बरस चुका सहराओं में...
कभी यूँ भी आ मिरी आँख में कि मिरी नज़र को ख़बर न हो मुझे एक रात नवाज़ दे मगर इस के बाद सहर न हो वो बड़ा रहीम ओ करीम है मुझे ये सिफ़त भी अता करे तुझे भूलने की दुआ करूँ तो मिरी दुआ में असर न हो...
सोए कहाँ थे आँखों ने तकिए भिगोए थे हम भी कभी किसी के लिए ख़ूब रोए थे अँगनाई में खड़े हुए बेरी के पेड़ से वो लोग चलते वक़्त गले मिल के रोए थे...
सर-ए-राह कुछ भी कहा नहीं कभी उस के घर मैं गया नहीं मैं जनम जनम से उसी का हूँ उसे आज तक ये पता नहीं उसे पाक नज़रों से चूमना भी इबादतों में शुमार है कोई फूल लाख क़रीब हो कभी मैं ने उस को छुआ नहीं...
अभी राह में कई मोड़ हैं कोई आएगा कोई जाएगा तुम्हें जिस ने दिल से भुला दिया उसे भूलने की दुआ करो...
कोई लश्कर कि धड़कते हुए ग़म आते हैं शाम के साए बहुत तेज़ क़दम आते हैं दिल वो दरवेश है जो आँख उठाता ही नहीं उस के दरवाज़े पे सौ अहल-ए-करम आते हैं...
बे-तहाशा सी ला-उबाली हँसी छिन गई हम से वो जियाली हँसी लब खुले जिस्म मुस्कुराने लगा फूल का खिलना था कि डाली हँसी...
ज़र्रों में कुनमुनाती हुई काएनात हूँ जो मुंतज़िर है जिस्मों की मैं वो हयात हूँ दोनों को प्यासा मार रहा है कोई यज़ीद ये ज़िंदगी हुसैन है और मैं फ़ुरात हूँ...
उसे पाक नज़रों से चूमना भी इबादतों में शुमार है कोई फूल लाख क़रीब हो कभी मैं ने उस को छुआ नहीं...