सौ ख़ुलूस बातों में सब करम ख़यालों में बस ज़रा वफ़ा कम है तेरे शहर वालों में पहली बार नज़रों ने चाँद बोलते देखा हम जवाब क्या देते खो गए सवालों में...
सुनसान रास्तों से सवारी न आएगी अब धूल से अटी हुई लारी न आएगी छप्पर के चाए-ख़ाने भी अब ऊँघने लगे पैदल चलो कि कोई सवारी न आएगी...
आँखों में रहा दिल में उतर कर नहीं देखा कश्ती के मुसाफ़िर ने समुंदर नहीं देखा बे-वक़्त अगर जाऊँगा सब चौंक पड़ेंगे इक उम्र हुई दिन में कभी घर नहीं देखा...
उदासी आसमाँ है दिल मिरा कितना अकेला है परिंदा शाम के पुल पर बहुत ख़ामोश बैठा है मैं जब सो जाऊँ इन आँखों पे अपने होंट रख देना यक़ीं आ जाएगा पलकों तले भी दिल धड़कता है...
अज़्मतें सब तिरी ख़ुदाई की हैसियत क्या मिरी इकाई की मिरे होंटों के फूल सूख गए तुम ने क्या मुझ से बेवफ़ाई की...
होंटों पे मोहब्बत के फ़साने नहीं आते साहिल पे समुंदर के ख़ज़ाने नहीं आते पलकें भी चमक उठती हैं सोने में हमारी आँखों को अभी ख़्वाब छुपाने नहीं आते...
उदास रात है कोई तो ख़्वाब दे जाओ मिरे गिलास में थोड़ी शराब दे जाओ बहुत से और भी घर हैं ख़ुदा की बस्ती में फ़क़ीर कब से खड़ा है जवाब दे जाओ...
दुआ करो कि ये पौदा सदा हरा ही लगे उदासियों में भी चेहरा खिला खिला ही लगे वो सादगी न करे कुछ भी तो अदा ही लगे वो भोल-पन है कि बेबाकी भी हया ही लगे...
अगर यक़ीं नहीं आता तो आज़माए मुझे वो आइना है तो फिर आइना दिखाए मुझे अजब चराग़ हूँ दिन रात जलता रहता हूँ मैं थक गया हूँ हवा से कहो बुझाए मुझे...
न जी भर के देखा न कुछ बात की बड़ी आरज़ू थी मुलाक़ात की उजालों की परियाँ नहाने लगीं नदी गुनगुनाई ख़यालात की...
सँवार नोक-पलक अबरुओं में ख़म कर दे गिरे पड़े हुए लफ़्ज़ों को मोहतरम कर दे ग़ुरूर उस पे बहुत सजता है मगर कह दो इसी में उस का भला है ग़ुरूर कम कर दे...
मैं तमाम दिन का थका हुआ तू तमाम शब का जगा हुआ ज़रा ठहर जा इसी मोड़ पर तेरे साथ शाम गुज़ार लूँ...
मैं तुम को भूल भी सकता हूँ इस जहाँ के लिए ज़रा सा झूट ज़रूर है दास्ताँ के लिए मिरे लबों पे कोई बूँद टपकी आँसू की ये क़तरा काफ़ी था जलते हुए मकाँ के लिए...
ये चराग़ बे-नज़र है ये सितारा बे-ज़बाँ है अभी तुझ से मिलता-जुलता कोई दूसरा कहाँ है वही शख़्स जिस पे अपने दिल ओ जाँ निसार कर दूँ वो अगर ख़फ़ा नहीं है तो ज़रूर बद-गुमाँ है...
है अजीब शहर की ज़िंदगी न सफ़र रहा न क़याम है कहीं कारोबार सी दोपहर कहीं बद-मिज़ाज सी शाम है यूँही रोज़ मिलने की आरज़ू बड़ी रख-रखाव की गुफ़्तुगू ये शराफ़तें नहीं बे-ग़रज़ इसे आप से कोई काम है...
परखना मत परखने में कोई अपना नहीं रहता किसी भी आइने में देर तक चेहरा नहीं रहता बड़े लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना जहाँ दरिया समुंदर से मिला दरिया नहीं रहता...
अगर तलाश करूँ कोई मिल ही जाएगा मगर तुम्हारी तरह कौन मुझ को चाहेगा तुम्हें ज़रूर कोई चाहतों से देखेगा मगर वो आँखें हमारी कहाँ से लाएगा...
मुसाफ़िर के रस्ते बदलते रहे मुक़द्दर में चलना था चलते रहे मिरे रास्तों में उजाला रहा दिए उस की आँखों में जलते रहे...
शाम आँखों में आँख पानी में और पानी सरा-ए-फ़ानी में झिलमिलाते हैं कश्तियों में दिए पुल खड़े सो रहे हैं पानी में...
शबनम के आँसू फूल पर ये तो वही क़िस्सा हुआ आँखें मिरी भीगी हुई चेहरा तिरा उतरा हुआ अब इन दिनों मेरी ग़ज़ल ख़ुशबू की इक तस्वीर है हर लफ़्ज़ ग़ुंचे की तरह खिल कर तिरा चेहरा हुआ...
मिरी ग़ज़ल की तरह उस की भी हुकूमत है तमाम मुल्क में वो सब से ख़ूबसूरत है कभी कभी कोई इंसान ऐसा लगता है पुराने शहर में जैसे नई इमारत है...
चाय की प्याली में नीली टेबलेट घोली सहमे सहमे हाथों ने इक किताब फिर खोली दाएरे अंधेरों के रौशनी के पोरों ने कोट के बटन खोले टाई की गिरह खोली...
अभी इस तरफ़ न निगाह कर मैं ग़ज़ल की पलकें सँवार लूँ मिरा लफ़्ज़ लफ़्ज़ हो आईना तुझे आईने में उतार लूँ मैं तमाम दिन का थका हुआ तू तमाम शब का जगा हुआ ज़रा ठहर जा इसी मोड़ पर तेरे साथ शाम गुज़ार लूँ...
कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो...
मंदिर गए मस्जिद गए पीरों फ़क़ीरों से मिले इक उस को पाने के लिए क्या क्या किया क्या क्या हुआ...
मोहब्बतों में दिखावे की दोस्ती न मिला अगर गले नहीं मिलता तो हाथ भी न मिला घरों पे नाम थे नामों के साथ ओहदे थे बहुत तलाश किया कोई आदमी न मिला...