मिरी ज़िंदगी भी मिरी नहीं ये हज़ार ख़ानों में बट गई
मुझे एक मुट्ठी ज़मीन दे ये ज़मीन कितनी सिमट गई
तिरी याद आए तो चुप रहूँ ज़रा चुप रहूँ तो ग़ज़ल कहूँ
ये अजीब आग की बेल थी मिरे तन-बदन से लिपट गई...
मेरे सीने पर वो सर रक्खे हुए सोता रहा
जाने क्या थी बात मैं जागा किया रोता रहा
शबनमी में धूप की जैसे वतन का ख़्वाब था
लोग ये समझे मैं सब्ज़े पर पड़ा सोता रहा...