ज़र्रों में कुनमुनाती हुई काएनात हूँ
ज़र्रों में कुनमुनाती हुई काएनात हूँ जो मुंतज़िर है जिस्मों की मैं वो हयात हूँ दोनों को प्यासा मार रहा है कोई यज़ीद ये ज़िंदगी हुसैन है और मैं फ़ुरात हूँ नेज़ा ज़मीं पे गाड़ के घोड़े से कूद जा पर मैं ज़मीं पे आबला-पा ख़ाली हात हूँ कैसा फ़लक हूँ जिस पे समुंदर सवार है सूरज भी मेरे सर पे है मैं कैसी रात हूँ अंधे कुएँ में मार के जो फेंक आए थे उन भाइयों से कहियो अभी तक हयात हूँ आती हुई ट्रेन के जो आगे रख गई उस माँ से ये न कहना ब-क़ैद-ए-हयात हूँ बाज़ार का नक़ीब समझ कर मुझे न छेड़ ख़ामोश रहने दे मैं तिरे घर की बात हूँ

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