कोई लश्कर कि धड़कते हुए ग़म आते हैं
कोई लश्कर कि धड़कते हुए ग़म आते हैं शाम के साए बहुत तेज़ क़दम आते हैं दिल वो दरवेश है जो आँख उठाता ही नहीं उस के दरवाज़े पे सौ अहल-ए-करम आते हैं मुझ से क्या बात लिखानी है कि अब मेरे लिए कभी सोने कभी चाँदी के क़लम आते हैं मैं ने दो-चार किताबें तो पढ़ी हैं लेकिन शेर के तौर-तरीक़े मुझे कम आते हैं ख़ूबसूरत सा कोई हादसा आँखों में लिए घर की दहलीज़ पे डरते हुए हम आते हैं

Read Next