मुझे आह-ओ-फ़ुग़ान-ए-नीम-शब का फिर पयाम आया थम ऐ रह-रौ कि शायद फिर कोई मुश्किल मक़ाम आया ज़रा तक़दीर की गहराइयों में डूब जा तू भी कि इस जंगाह से मैं बन के तेग़-ए-बे-नियाम आया...
वजूद-ए-ज़न से है तस्वीर-ए-काएनात में रंग उसी के साज़ से है ज़िंदगी का सोज़-ए-दरूँ शरफ़ में बढ़ के सुरय्या से मुश्त-ए-ख़ाक उस की कि हर शरफ़ है इसी दर्ज का दुर-ए-मकनूँ...
इक मौलवी साहब की सुनाता हूँ कहानी तेज़ी नहीं मंज़ूर तबीअत की दिखानी शोहरा था बहुत आप की सूफ़ी-मनुशी का करते थे अदब उन का अआली ओ अदानी...
तिरी निगाह फ़रोमाया हाथ है कोताह तिरा गुनह कि नख़ील-ए-बुलंद का है गुनाह गला तो घोंट दिया अहल-ए-मदरसा ने तिरा कहाँ से आए सदा ला इलाह इल-लल्लाह...
मस्जिद तो बना दी शब भर में ईमाँ की हरारत वालों ने मैन अपना पुराना पापी है बरसों में नमाज़ी बन न सका...
ख़िरद ने मुझ को अता की नज़र हकीमाना सिखाई इश्क़ ने मुझ को हदीस-ए-रिंदाना न बादा है न सुराही न दौर-ए-पैमाना फ़क़त निगाह से रंगीं है बज़्म-ए-जानाना...
उमीद-ए-हूर ने सब कुछ सिखा रक्खा है वाइज़ को ये हज़रत देखने में सीधे-सादे भोले-भाले हैं...
फ़ितरत ने न बख़्शा मुझे अंदेशा-ए-चालाक रखती है मगर ताक़त-ए-परवाज़ मिरी ख़ाक वो ख़ाक कि है जिस का जुनूँ सयक़ल-ए-इदराक वो ख़ाक कि जिबरील की है जिस से क़बा चाक...
खो न जा इस सहर ओ शाम में ऐ साहिब-ए-होश इक जहाँ और भी है जिस में न फ़र्दा है न दोश किस को मालूम है हंगामा-ए-फ़र्दा का मक़ाम मस्जिद ओ मकतब ओ मय-ख़ाना हैं मुद्दत से ख़मोश...
बाग़-ए-बहिश्त से मुझे हुक्म-ए-सफ़र दिया था क्यूँ कार-ए-जहाँ दराज़ है अब मिरा इंतिज़ार कर...
ये दैर-ए-कुहन क्या है अम्बार-ए-ख़स-ओ-ख़ाशाक मुश्किल है गुज़र इस में बे-नाला-ए-आतिशनाक नख़चीर-ए-मोहब्बत का क़िस्सा नहीं तूलानी लुत्फ़-ए-ख़लिश-ए-पैकाँ आसूदगी-ए-फ़ितराक...
शुऊर ओ होश ओ ख़िरद का मोआमला है अजीब मक़ाम-ए-शौक़ में हैं सब दिल ओ नज़र के रक़ीब मैं जानता हूँ जमाअत का हश्र क्या होगा मसाइल-ए-नज़री में उलझ गया है ख़तीब...
चीन-ओ-अरब हमारा हिन्दोस्ताँ हमारा मुस्लिम हैं हम वतन है सारा जहाँ हमारा तौहीद की अमानत सीनों में है हमारे आसाँ नहीं मिटाना नाम-ओ-निशाँ हमारा...
इबलीस ये अनासिर का पुराना खेल ये दुनिया-ए-दूँ साकिनान-ए-अर्श-ए-आज़म की तमन्नाओं का ख़ूँ इस की बर्बादी पे आज आमादा है वो कारसाज़...
हुआ न ज़ोर से उस के कोई गरेबाँ चाक अगरचे मग़रबियों का जुनूँ भी था चालाक मय-ए-यक़ीं से ज़मीर-ए-हयात है पुर-सोज़ नसीब-ए-मदरसा या रब ये आब-ए-आतिश-नाक...
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा हम बुलबुलें हैं इस की ये गुलसिताँ हमारा ग़ुर्बत में हों अगर हम रहता है दिल वतन में समझो वहीं हमें भी दिल हो जहाँ हमारा...
लबरेज़ है शराब-ए-हक़ीक़त से जाम-ए-हिंद सब फ़लसफ़ी हैं ख़ित्ता-ए-मग़रिब के राम-ए-हिंद ये हिन्दियों की फ़िक्र-ए-फ़लक-रस का है असर रिफ़अत में आसमाँ से भी ऊँचा है बाम-ए-हिंद...
परेशाँ हो के मेरी ख़ाक आख़िर दिल न बन जाए जो मुश्किल अब है या रब फिर वही मुश्किल न बन जाए न कर दें मुझ को मजबूर-ए-नवाँ फ़िरदौस में हूरें मिरा सोज़-ए-दरूँ फिर गर्मी-ए-महफ़िल न बन जाए...
क़ौम ने पैग़ाम-ए-गौतम की ज़रा परवा न की क़द्र पहचानी न अपने गौहर-ए-यक-दाना की आह बद-क़िस्मत रहे आवाज़-ए-हक़ से बे-ख़बर ग़ाफ़िल अपने फल की शीरीनी से होता है शजर...
तू ने ये क्या ग़ज़ब किया मुझ को भी फ़ाश कर दिया मैं ही तो एक राज़ था सीना-ए-काएनात में...
ताज़ा फिर दानिश-ए-हाज़िर ने किया सेहर-ए-क़ादिम गुज़र इस अहद में मुमकिन नहीं बे-चोब-ए-कलीम अक़्ल अय्यार है सौ भेस बना लेती है इश्क़ बेचारा न मुल्ला है न ज़ाहिद न हकीम...
था जहाँ मदरसा-ए-शीरी-ओ-शाहंशाही आज इन ख़ानक़हों में है फ़क़त रूबाही नज़र आई न मुझे क़ाफ़िला-सालारों में वो शबानी कि है तम्हीद-ए-कलीमुल-लाही...
ऐ अहल-ए-नज़र ज़ौक़-ए-नज़र ख़ूब है लेकिन जो शय की हक़ीक़त को न देखे वो नज़र क्या! मक़्सूद-ए-हुनर सोज़-ए-हयात-ए-अबदी है ये एक नफ़स या दो नफ़स मिस्ल-ए-शरर क्या!...
ख़ुदी की शोख़ी ओ तुंदी में किब्र-ओ-नाज़ नहीं जो नाज़ हो भी तो बे-लज़्ज़त-ए-नियाज़ नहीं निगाह-ए-इश्क़ दिल-ए-ज़िंदा की तलाश में है शिकार-ए-मुर्दा सज़ा-वार-ए-शाहबाज़ नहीं...
कुशादा दस्त-ए-करम जब वो बे-नियाज़ करे नियाज़-मंद न क्यूँ आजिज़ी पे नाज़ करे बिठा के अर्श पे रक्खा है तू ने ऐ वाइज़ ख़ुदा वो क्या है जो बंदों से एहतिराज़ करे...
हज़ारों साल नर्गिस अपनी बे-नूरी पे रोती है बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदा-वर पैदा...