Page 3 of 6

जिस खेत से दहक़ाँ को मयस्सर नहीं रोज़ी उस खेत के हर ख़ोशा-ए-गंदुम को जला दो...

मन की दौलत हाथ आती है तो फिर जाती नहीं तन की दौलत छाँव है आता है धन जाता है धन...

उठ्ठो मिरी दुनिया के ग़रीबों को जगा दो काख़-ए-उमरा के दर ओ दीवार हिला दो गर्माओ ग़ुलामों का लहू सोज़-ए-यक़ीं से कुन्जिश्क-ए-फ़रोमाया को शाहीं से लड़ा दो...

मजनूँ ने शहर छोड़ा तो सहरा भी छोड़ दे नज़्ज़ारे की हवस हो तो लैला भी छोड़ दे वाइज़ कमाल-ए-तर्क से मिलती है याँ मुराद दुनिया जो छोड़ दी है तो उक़्बा भी छोड़ दे...

क़ल्ब ओ नज़र की ज़िंदगी दश्त में सुब्ह का समाँ चश्मा-ए-आफ़्ताब से नूर की नद्दियाँ रवाँ! हुस्न-ए-अज़ल की है नुमूद चाक है पर्दा-ए-वजूद दिल के लिए हज़ार सूद एक निगाह का ज़ियाँ!...

भरी बज़्म में राज़ की बात कह दी बड़ा बे-अदब हूँ सज़ा चाहता हूँ...

न पूछो मुझ से लज़्ज़त ख़ानमाँ-बर्बाद रहने की नशेमन सैकड़ों मैं ने बना कर फूँक डाले हैं...

ढूँड रहा है फ़रंग ऐश-ए-जहाँ का दवाम वा-ए-तमन्ना-ए-ख़ाम वा-ए-तमन्ना-ए-ख़ाम पीर-ए-हरम ने कहा सुन के मेरी रूएदाद पुख़्ता है तेरी फ़ुग़ाँ अब न इसे दिल में थाम...

की हक़ से फ़रिश्तों ने 'इक़बाल' की ग़म्माज़ी गुस्ताख़ है करता है फ़ितरत की हिना-बंदी ख़ाकी है मगर इस के अंदाज़ हैं अफ़्लाकी रूमी है न शामी है काशी न समरक़ंदी...

मिटा दिया मिरे साक़ी ने आलम-ए-मन-ओ-तू पिला के मुझ को मय-ए-ला-इलाहा-इल्ला-हू न मय न शेर न साक़ी न शोर-ए-चंग-ओ-रबाब सुकूत-ए-कोह ओ लब-ए-जू व लाला-ए-ख़ुद-रू...

जहाँ में दानिश ओ बीनिश की है किस दर्जा अर्ज़ानी कोई शय छुप नहीं सकती कि ये आलम है नूरानी कोई देखे तो है बारीक फ़ितरत का हिजाब इतना नुमायाँ हैं फ़रिश्तों के तबस्सुम-हा-ए-पिन्हानी...

तू है मुहीत-ए-बे-कराँ मैं हूँ ज़रा सी आबजू या मुझे हम-कनार कर या मुझे बे-कनार कर...

ख़ुदी वो बहर है जिस का कोई किनारा नहीं तू आबजू इसे समझा अगर तो चारा नहीं...

न तू ज़मीं के लिए है न आसमाँ के लिए जहाँ है तेरे लिए तू नहीं जहाँ के लिए ये अक़्ल ओ दिल हैं शरर शोला-ए-मोहब्बत के वो ख़ार-ओ-ख़स के लिए है ये नीस्ताँ के लिए...

वो हर्फ़-ए-राज़ कि मुझ को सिखा गया है जुनूँ ख़ुदा मुझे नफ़स-ए-जिबरईल दे तो कहूँ सितारा क्या मिरी तक़दीर की ख़बर देगा वो ख़ुद फ़राख़ी-ए-अफ़्लाक में है ख़्वार ओ ज़ुबूँ...

हर इक मक़ाम से आगे गुज़र गया मह-ए-नौ कमाल किस को मयस्सर हुआ है बे-तग-ओ-दौ नफ़स के ज़ोर से वो ग़ुंचा वा हुआ भी तो क्या जिसे नसीब नहीं आफ़्ताब का परतव...

बे-ख़तर कूद पड़ा आतिश-ए-नमरूद में इश्क़ अक़्ल है महव-ए-तमाशा-ए-लब-ए-बाम अभी...

या रब ये जहान-ए-गुज़राँ ख़ूब है लेकिन क्यूँ ख़्वार हैं मर्दान-ए-सफ़ा-केश ओ हुनर-मंद गो इस की ख़ुदाई में महाजन का भी है हाथ दुनिया तो समझती है फ़रंगी को ख़ुदावंद...

इश्क़ से पैदा नवा-ए-ज़िंदगी में ज़ेर-ओ-बम इश्क़ से मिट्टी की तस्वीरों में सोज़-ए-दम-ब-दम आदमी के रेशे रेशे में समा जाता है इश्क़ शाख़-ए-गुल में जिस तरह बाद-ए-सहर-गाही का नम...

इक दानिश-ए-नूरानी इक दानिश-ए-बुरहानी है दानिश-ए-बुरहानी हैरत की फ़रावानी इस पैकर-ए-ख़ाकी में इक शय है सो वो तेरी मेरे लिए मुश्किल है इस शय की निगहबानी...

नहीं मिन्नत-कश-ए-ताब-ए-शुनीदन दास्ताँ मेरी ख़मोशी गुफ़्तुगू है बे-ज़बानी है ज़बाँ मेरी ये दस्तूर-ए-ज़बाँ-बंदी है कैसा तेरी महफ़िल में यहाँ तो बात करने को तरसती है ज़बाँ मेरी...

पुराने हैं ये सितारे फ़लक भी फ़र्सूदा जहाँ वो चाहिए मुझ को कि हो अभी नौ-ख़ेज़...

न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दोस्ताँ वालो तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में...

ज़मीर-ए-लाला मय-ए-लाल से हुआ लबरेज़ इशारा पाते ही सूफ़ी ने तोड़ दी परहेज़...

रोज़-ए-हिसाब जब मिरा पेश हो दफ़्तर-ए-अमल आप भी शर्मसार हो मुझ को भी शर्मसार कर...

ज़माना आया है बे-हिजाबी का आम दीदार-ए-यार होगा सुकूत था पर्दा-दार जिस का वो राज़ अब आश्कार होगा गुज़र गया अब वो दौर-ए-साक़ी कि छुप के पीते थे पीने वाले बनेगा सारा जहान मय-ख़ाना हर कोई बादा-ख़्वार होगा...

अनोखी वज़्अ' है सारे ज़माने से निराले हैं ये आशिक़ कौन सी बस्ती के या-रब रहने वाले हैं...

उरूज-ए-आदम-ए-ख़ाकी से अंजुम सहमे जाते हैं कि ये टूटा हुआ तारा मह-ए-कामिल न बन जाए...

उसे सुब्ह-ए-अज़ल इंकार की जुरअत हुई क्यूँकर मुझे मालूम क्या वो राज़-दाँ तेरा है या मेरा...

हर चीज़ है महव-ए-ख़ुद-नुमाई हर ज़र्रा शाहीद-ए-किब्रियाई बे-ज़ौक़-ए-नुमूद ज़िंदगी मौत तामीर-ए-ख़ुदी में है ख़ुदाई...

गुलज़ार-ए-हस्त-ओ-बूद न बेगाना-वार देख है देखने की चीज़ इसे बार बार देख...

जलाल-ए-पादशाही हो कि जमहूरी तमाशा हो जुदा हो दीं सियासत से तो रह जाती है चंगेज़ी...

जा बसा मग़रिब में आख़िर ऐ मकाँ तेरा मकीं आह! मशरिक़ की पसंद आई न उस को सरज़मीं आ गया आज इस सदाक़त का मिरे दिल को यक़ीं ज़ुल्मत-ए-शब से ज़िया-ए-रोज़-ए-फ़ुर्क़त कम नहीं...

ख़ुदी का सिर्र-ए-निहाँ ला-इलाहा-इल्लल्लाह ख़ुदी है तेग़ फ़साँ ला-इलाहा-इल्लल्लाह ये दौर अपने बराहीम की तलाश में है सनम-कदा है जहाँ ला-इलाहा-इल्लल्लाह...

गेसू-ए-ताबदार को और भी ताबदार कर होश ओ ख़िरद शिकार कर क़ल्ब ओ नज़र शिकार कर...

अमल से ज़िंदगी बनती है जन्नत भी जहन्नम भी ये ख़ाकी अपनी फ़ितरत में न नूरी है न नारी है...

दिल सोज़ से ख़ाली है निगह पाक नहीं है फिर इस में अजब क्या कि तू बेबाक नहीं है है ज़ौक़-ए-तजल्ली भी इसी ख़ाक में पिन्हाँ ग़ाफ़िल तू निरा साहिब-ए-इदराक नहीं है...

कमाल-ए-तर्क नहीं आब-ओ-गिल से महजूरी कमाल-ए-तर्क है तस्ख़ीर-ए-ख़ाकी ओ नूरी मैं ऐसे फ़क़्र से ऐ अहल-ए-हल्क़ा बाज़ आया तुम्हारा फ़क़्र है बे-दौलती ओ रंजूरी...

दिल से जो बात निकलती है असर रखती है पर नहीं ताक़त-ए-परवाज़ मगर रखती है...

मकतबों में कहीं रानाई-ए-अफ़कार भी है ख़ानक़ाहों में कहीं लज़्ज़त-ए-असरार भी है मंज़िल-ए-रह-रवाँ दूर भी दुश्वार भी है कोई इस क़ाफ़िले में क़ाफ़िला-सालार भी है...