गर्म-ए-फ़ुग़ाँ है जरस उठ कि गया क़ाफ़िला
गर्म-ए-फ़ुग़ाँ है जरस उठ कि गया क़ाफ़िला वाए वो रह-रौ कि है मुंतज़़िर-ए-राहिला तेरी तबीअत है और तेरा ज़माना है और तेरे मुआफ़िक़ नहीं ख़ानक़ही सिलसिला दिल हो ग़ुलाम-ए-ख़िरद या कि इमाम-ए-ख़िरद सालिक-ए-रह होशियार सख़्त है ये मरहला उस की ख़ुदी है अभी शाम-ओ-सहर में असीर गर्दिश-ए-दौराँ का है जिस की ज़बाँ पर गिला तेरे नफ़स से हुई आतिश-ए-गुल तेज़-तर मुर्ग़-ए-चमन है यही तेरी नवा का सिला

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