इस से पहले कि बे-वफ़ा हो जाएँ क्यूँ न ऐ दोस्त हम जुदा हो जाएँ तू भी हीरे से बन गया पत्थर हम भी कल जाने क्या से क्या हो जाएँ...
रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ कुछ तो मिरे पिंदार-ए-मोहब्बत का भरम रख तू भी तो कभी मुझ को मनाने के लिए आ...
मुस्तक़िल महरूमियों पर भी तो दिल माना नहीं लाख समझाया कि इस महफ़िल में अब जाना नहीं ख़ुद-फ़रेबी ही सही क्या कीजिए दिल का इलाज तू नज़र फेरे तो हम समझें कि पहचाना नहीं...
ये तिरी आँखों की बे-ज़ारी ये लहजे की थकन कितने अंदेशों की हामिल हैं ये दिल की धड़कनें पेश-तर इस के कि हम फिर से मुख़ालिफ़ सम्त को बे-ख़ुदा-हाफ़िज़ कहे चल दें झुका कर गर्दनें...
पयाम आए हैं उस यार-ए-बेवफ़ा के मुझे जिसे क़रार न आया कहीं भुला के मुझे जुदाइयाँ हों तो ऐसी कि उम्र भर न मिलें फ़रेब दो तो ज़रा सिलसिले बढ़ा के मुझे...
मुझ से पहले तुझे जिस शख़्स ने चाहा उस ने शायद अब भी तिरा ग़म दिल से लगा रक्खा हो एक बे-नाम सी उम्मीद पे अब भी शायद अपने ख़्वाबों के जज़ीरों को सजा रक्खा हो...
चाक-ए-पैराहनी-ए-गुल को सबा जानती है मस्ती-ए-शौक़ कहाँ बंद-ए-क़बा जानती है हम तो बदनाम-ए-मोहब्बत थे सो रुस्वा ठहरे नासेहों को भी मगर ख़ल्क़-ए-ख़ुदा जानती है...
आशिक़ी में 'मीर' जैसे ख़्वाब मत देखा करो बावले हो जाओगे महताब मत देखा करो जस्ता जस्ता पढ़ लिया करना मज़ामीन-ए-वफ़ा पर किताब-ए-इश्क़ का हर बाब मत देखा करो...
जब तुझे याद करें कार-ए-जहाँ खेंचता है और फिर इश्क़ वही कोह-ए-गिराँ खेंचता है किसी दुश्मन का कोई तीर न पहुँचा मुझ तक देखना अब के मिरा दोस्त कमाँ खेंचता है...
हर कोई दिल की हथेली पे है सहरा रक्खे किस को सैराब करे वो किसे प्यासा रक्खे उम्र भर कौन निभाता है तअल्लुक़ इतना ऐ मिरी जान के दुश्मन तुझे अल्लाह रक्खे...
फिर उसी रहगुज़ार पर शायद हम कभी मिल सकें मगर शायद जिन के हम मुंतज़िर रहे उन को मिल गए और हम-सफ़र शायद...
गिला फ़ुज़ूल था अहद-ए-वफ़ा के होते हुए सो चुप रहा सितम-ए-ना-रवा के होते हुए ये क़ुर्बतों में अजब फ़ासले पड़े कि मुझे है आश्ना की तलब आश्ना के होते हुए...
ख़ुद को तिरे मेआर से घट कर नहीं देखा जो छोड़ गया उस को पलट कर नहीं देखा मेरी तरह तू ने शब-ए-हिज्राँ नहीं काटी मेरी तरह इस तेग़ पे कट कर नहीं देखा...
ज़िंदगी से यही गिला है मुझे तू बहुत देर से मिला है मुझे तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल हार जाने का हौसला है मुझे...
मैं तो मक़्तल में भी क़िस्मत का सिकंदर निकला क़ुरा-ए-फ़ाल मिरे नाम का अक्सर निकला था जिन्हें ज़ोम वो दरिया भी मुझी में डूबे मैं कि सहरा नज़र आता था समुंदर निकला...
इस क़दर मुसलसल थीं शिद्दतें जुदाई की आज पहली बार उस से मैं ने बेवफ़ाई की वर्ना अब तलक यूँ था ख़्वाहिशों की बारिश में या तो टूट कर रोया या ग़ज़ल-सराई की...
ले उड़ा फिर कोई ख़याल हमें साक़िया साक़िया सँभाल हमें रो रहे हैं कि एक आदत है वर्ना इतना नहीं मलाल हमें...
शगुफ़्त-ए-गुल की सदा में रंग-ए-चमन में आओ कोई भी रुत हो बहार के पैरहन में आओ कोई सफ़र हो तुम्हीं को मंज़िल समझ के जाऊँ कोई मसाफ़त हो तुम मिरी ही लगन में आओ...
किसी बेवफ़ा की ख़ातिर ये जुनूँ 'फ़राज़' कब तक जो तुम्हें भुला चुका है उसे तुम भी भूल जाओ...