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मेरी ख़ातिर न सही अपनी अना की ख़ातिर अपने बंदों से तो पिंदार ख़ुदाई ले ले...

आज हम दार पे खींचे गए जिन बातों पर क्या अजब कल वो ज़माने को निसाबों में मिलें...

साक़िया एक नज़र जाम से पहले पहले हम को जाना है कहीं शाम से पहले पहले...

इस से पहले कि बे-वफ़ा हो जाएँ क्यूँ न ऐ दोस्त हम जुदा हो जाएँ तू भी हीरे से बन गया पत्थर हम भी कल जाने क्या से क्या हो जाएँ...

जुदाइयाँ तो मुक़द्दर हैं फिर भी जान-ए-सफ़र कुछ और दूर ज़रा साथ चल के देखते हैं...

रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ कुछ तो मिरे पिंदार-ए-मोहब्बत का भरम रख तू भी तो कभी मुझ को मनाने के लिए आ...

मुस्तक़िल महरूमियों पर भी तो दिल माना नहीं लाख समझाया कि इस महफ़िल में अब जाना नहीं ख़ुद-फ़रेबी ही सही क्या कीजिए दिल का इलाज तू नज़र फेरे तो हम समझें कि पहचाना नहीं...

हम अगर मंज़िलें न बन पाए मंज़िलों तक का रास्ता हो जाएँ...

कभी 'फ़राज़' से आ कर मिलो जो वक़्त मिले ये शख़्स ख़ूब है अशआर के अलावा भी...

ये तिरी आँखों की बे-ज़ारी ये लहजे की थकन कितने अंदेशों की हामिल हैं ये दिल की धड़कनें पेश-तर इस के कि हम फिर से मुख़ालिफ़ सम्त को बे-ख़ुदा-हाफ़िज़ कहे चल दें झुका कर गर्दनें...

ज़ब्त लाज़िम है मगर दुख है क़यामत का 'फ़राज़' ज़ालिम अब के भी न रोएगा तो मर जाएगा...

पयाम आए हैं उस यार-ए-बेवफ़ा के मुझे जिसे क़रार न आया कहीं भुला के मुझे जुदाइयाँ हों तो ऐसी कि उम्र भर न मिलें फ़रेब दो तो ज़रा सिलसिले बढ़ा के मुझे...

मुझ से पहले तुझे जिस शख़्स ने चाहा उस ने शायद अब भी तिरा ग़म दिल से लगा रक्खा हो एक बे-नाम सी उम्मीद पे अब भी शायद अपने ख़्वाबों के जज़ीरों को सजा रक्खा हो...

हवा में नश्शा ही नश्शा फ़ज़ा में रंग ही रंग ये किस ने पैरहन अपना उछाल रक्खा है...

मैं क्या करूँ मिरे क़ातिल न चाहने पर भी तिरे लिए मिरे दिल से दुआ निकलती है...

तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल हार जाने का हौसला है मुझे...

चाक-ए-पैराहनी-ए-गुल को सबा जानती है मस्ती-ए-शौक़ कहाँ बंद-ए-क़बा जानती है हम तो बदनाम-ए-मोहब्बत थे सो रुस्वा ठहरे नासेहों को भी मगर ख़ल्क़-ए-ख़ुदा जानती है...

आशिक़ी में 'मीर' जैसे ख़्वाब मत देखा करो बावले हो जाओगे महताब मत देखा करो जस्ता जस्ता पढ़ लिया करना मज़ामीन-ए-वफ़ा पर किताब-ए-इश्क़ का हर बाब मत देखा करो...

सामने उम्र पड़ी है शब-ए-तन्हाई की वो मुझे छोड़ गया शाम से पहले पहले...

जब तुझे याद करें कार-ए-जहाँ खेंचता है और फिर इश्क़ वही कोह-ए-गिराँ खेंचता है किसी दुश्मन का कोई तीर न पहुँचा मुझ तक देखना अब के मिरा दोस्त कमाँ खेंचता है...

याद आई है तो फिर टूट के याद आई है कोई गुज़री हुई मंज़िल कोई भूली हुई दोस्त...

हर कोई दिल की हथेली पे है सहरा रक्खे किस को सैराब करे वो किसे प्यासा रक्खे उम्र भर कौन निभाता है तअल्लुक़ इतना ऐ मिरी जान के दुश्मन तुझे अल्लाह रक्खे...

सितम तो ये है कि ज़ालिम सुख़न-शनास नहीं वो एक शख़्स कि शाएर बना गया मुझ को...

दिल-गिरफ़्ता ही सही बज़्म सजा ली जाए याद-ए-जानाँ से कोई शाम न ख़ाली जाए...

न शब ओ रोज़ ही बदले हैं न हाल अच्छा है किस बरहमन ने कहा था कि ये साल अच्छा है...

फिर उसी रहगुज़ार पर शायद हम कभी मिल सकें मगर शायद जिन के हम मुंतज़िर रहे उन को मिल गए और हम-सफ़र शायद...

तेरे होते हुए महफ़िल में जलाते हैं चराग़ लोग क्या सादा हैं सूरज को दिखाते हैं चराग़...

गिला फ़ुज़ूल था अहद-ए-वफ़ा के होते हुए सो चुप रहा सितम-ए-ना-रवा के होते हुए ये क़ुर्बतों में अजब फ़ासले पड़े कि मुझे है आश्ना की तलब आश्ना के होते हुए...

ख़ुद को तिरे मेआर से घट कर नहीं देखा जो छोड़ गया उस को पलट कर नहीं देखा मेरी तरह तू ने शब-ए-हिज्राँ नहीं काटी मेरी तरह इस तेग़ पे कट कर नहीं देखा...

ज़िंदगी से यही गिला है मुझे तू बहुत देर से मिला है मुझे तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल हार जाने का हौसला है मुझे...

मैं तो मक़्तल में भी क़िस्मत का सिकंदर निकला क़ुरा-ए-फ़ाल मिरे नाम का अक्सर निकला था जिन्हें ज़ोम वो दरिया भी मुझी में डूबे मैं कि सहरा नज़र आता था समुंदर निकला...

किसी दुश्मन का कोई तीर न पहुँचा मुझ तक देखना अब के मिरा दोस्त कमाँ खेंचता है...

इस क़दर मुसलसल थीं शिद्दतें जुदाई की आज पहली बार उस से मैं ने बेवफ़ाई की वर्ना अब तलक यूँ था ख़्वाहिशों की बारिश में या तो टूट कर रोया या ग़ज़ल-सराई की...

ले उड़ा फिर कोई ख़याल हमें साक़िया साक़िया सँभाल हमें रो रहे हैं कि एक आदत है वर्ना इतना नहीं मलाल हमें...

शगुफ़्त-ए-गुल की सदा में रंग-ए-चमन में आओ कोई भी रुत हो बहार के पैरहन में आओ कोई सफ़र हो तुम्हीं को मंज़िल समझ के जाऊँ कोई मसाफ़त हो तुम मिरी ही लगन में आओ...

सारा शहर बिलकता है फिर भी कैसा सकता है गलियों में बारूद की बू या फिर ख़ून महकता है...

क़ासिदा हम फ़क़ीर लोगों का इक ठिकाना नहीं कि तुझ से कहें...

किसी बेवफ़ा की ख़ातिर ये जुनूँ 'फ़राज़' कब तक जो तुम्हें भुला चुका है उसे तुम भी भूल जाओ...

अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं 'फ़राज़' अब ज़रा लहजा बदल के देखते हैं...

मुद्दतें हो गईं 'फ़राज़' मगर वो जो दीवानगी कि थी है अभी...