हर एक घर में दिया भी जले अनाज भी हो
हर एक घर में दिया भी जले अनाज भी हो अगर न हो कहीं ऐसा तो एहतिजाज भी हो रहेगी वादों में कब तक असीर ख़ुश-हाली हर एक बार ही कल क्यूँ कभी तो आज भी हो न करते शोर-शराबा तो और क्या करते तुम्हारे शहर में कुछ और काम काज भी हो हुकूमतों को बदलना तो कुछ मुहाल नहीं हुकूमतें जो बदलता है वो समाज भी हो बदल रहे हैं कई आदमी दरिंदों में मरज़ पुराना है उस का नया इलाज भी हो अकेले ग़म से नई शाइरी नहीं होती ज़बान-ए-मीर में ग़ालिब का इम्तिज़ाज भी हो

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