ये जो फैला हुआ ज़माना है
ये जो फैला हुआ ज़माना है इस का रक़्बा ग़रीब-ख़ाना है कोई मंज़र सदा नहीं रहता हर तअल्लुक़ मुसाफ़िराना है देस परदेस क्या परिंदों का आब ओ दाना ही आशियाना है कैसी मस्जिद कहाँ का बुत-ख़ाना हर जगह उस का आस्ताना है इश्क़ की उम्र कम ही होती है बाक़ी जो कुछ है दोस्ताना है

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