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गुल हुए ग़र्क़ आब-ए-शबनम में देख उस साहिब-ए-हया की अदा...

मुश्ताक़ हैं उश्शाक़ तिरी बाँकी अदा के ज़ख़्मी हैं मोहिब्बाँ तिरी शमशीर-ए-जफ़ा के हर पेच में चीरे के तिरे लिपटे हैं आशिक़ आलम के दिलाँ बंद हैं तुझ बंद-ए-क़बा के...

तुझ लब की सिफ़त लाल-ए-बदख़्शाँ सूँ कहूँगा जादू हैं तिरे नैन ग़ज़ालाँ सूँ कहूँगा...

सोहबत-ए-ग़ैर मूं जाया न करो दर्द-मंदाँ कूँ कुढ़ाया न करो हक़-परस्ती का अगर दावा है बे-गुनाहाँ कूँ सताया न करो...

वो नाज़नीं अदा में एजाज़ है सरापा ख़ूबी में गुल-रुख़ाँ सूँ मुम्ताज़ है सरापा ऐ शोख़ तुझ नयन में देखा निगाह कर कर आशिक़ के मारने का अंदाज़ है सरापा...

कमर उस दिलरुबा की दिलरुबा है निगह उस ख़ुश-अदा की ख़ुश-अदा है सजन के हुस्न कूँ टुक फ़िक्र सूँ देख कि ये आईना-ए-मअ'नी-नुमा है...

फिर मेरी ख़बर लेने वो सय्याद न आया शायद कि मिरा हाल उसे याद न आया...

दिल कूँ तुझ बाज बे-क़रारी है चश्म का काम अश्क-बारी है शब-ए-फ़ुर्क़त में मोनिस ओ हमदम बे-क़रारों कूँ आह-ओ-ज़ारी है...

इश्क़ में सब्र-ओ-रज़ा दरकार है फ़िक्र-ए-असबाब-ए-वफ़ा दरकार है चाक करने जामा-ए-सब्र-ओ-क़रार दिलबर-ए-रंगीं क़बा दरकार है...

ख़ूब-रू ख़ूब काम करते हैं यक निगह में ग़ुलाम करते हैं देख ख़ूबाँ कूँ वक़्त मिलने के किस अदा सूँ सलाम करते हैं...

चाहता है इस जहाँ में गर बहिश्त जा तमाशा देख उस रुख़्सार का...

जिसे इश्क़ का तीर कारी लगे उसे ज़िंदगी क्यूँ न भारी लगे...

मैं आशिक़ी में तब सूँ अफ़्साना हो रहा हूँ तेरी निगह का जब सूँ दीवाना हो रहा हूँ ऐ आश्ना करम सूँ यक बार आ दरस दे तुझ बाज सब जहाँ सूँ बेगाना हो रहा हूँ...

रश्क सूँ तुझ लबाँ की सुर्ख़ी पर जिगर-ए-लाला दाग़ दाग़ हुआ...

शग़्ल बेहतर है इश्क़-बाज़ी का क्या हक़ीक़ी ओ क्या मजाज़ी का हर ज़बाँ पर है मिस्ल-ए-शाना मुदाम ज़िक्र तुझ ज़ुल्फ़ की दराज़ी का...

तिरा मजनूँ हूँ सहरा की क़सम है तलब में हूँ तमन्ना की क़सम है सरापा नाज़ है तू ऐ परी-रू मुझे तेरे सरापा की क़सम है...

ऐ नूर-ए-जान-ओ-दीदा तिरे इंतिज़ार में मुद्दत हुई पलक सूँ पलक आश्ना नईं...

आशिक़ के मुख पे नैन के पानी को देख तूँ इस आरसी में राज़-ए-निहानी कूँ देख तूँ सुन बे-क़रार दिल की अवल आह-ए-शोला-ख़ेज़ तब इस हरफ़ में दिल के मआनी कूँ देख तूँ...

ख़ूब-रू ख़ूब काम करते हैं यक निगह में ग़ुलाम करते हैं...

मुफ़्लिसी सब बहार खोती है मर्द का ए'तिबार खोती है क्यूँके हासिल हो मुज को जमइय्यत ज़ुल्फ़ तेरी क़रार खोती है...

हुए हैं राम पीतम के नयन आहिस्ता-आहिस्ता कि ज्यूँ फाँदे में आते हैं हिरन आहिस्ता-आहिस्ता मिरा दिल मिस्ल परवाने के था मुश्ताक़ जलने का लगी उस शम्अ सूँ आख़िर लगन आहिस्ता-आहिस्ता...

याद करना हर घड़ी तुझ यार का है वज़ीफ़ा मुझ दिल-ए-बीमार का...

दिल तलबगार-ए-नाज़-ए-मह-वश है लुत्फ़ उस का अगरचे दिलकश है मुझ सूँ क्यूँ कर मिलेगा हैराँ हूँ शोख़ है बेवफ़ा है सरकश है...

किशन की गोपियाँ की नईं है ये नस्ल रहें सब गोपियाँ वो नक़्ल ये अस्ल...

इश्क़ बेताब-ए-जाँ-गुदाज़ी है हुस्न मुश्ताक़-ए-दिल-नवाज़ी है अश्क ख़ूनीं सूँ जो किया है वज़ू मज़हब-ए-इश्क़ में नमाज़ी है...

हर ज़र्रा उस की चश्म में लबरेज़-ए-नूर है देखा है जिस ने हुस्न-ए-तजल्ली बहार का...

भड़के है दिल की आतिश तुझ नेह की हवा सूँ शोला नमत जला दिल तुझ हुस्न-ए-शोला-ज़ा सूँ गुल के चराग़ गुल हो यक बार झड़ पड़ें सब मुझ आह की हिकायत बोलें अगर सबा सूँ...

जब सनम कूँ ख़याल-ए-बाग़ हुआ तालिब-ए-नश्शा-ए-फ़राग़ हुआ फ़ौज-ए-उश्शाक़ देख हर जानिब नाज़नीं साहिब-ए-दिमाग़ हुआ...

दिल-ए-उश्शाक़ क्यूँ न हो रौशन जब ख़याल-ए-सनम चराग़ हुआ...

हुआ ज़ाहिर ख़त-ए-रू-ए-निगार आहिस्ता-आहिस्ता कि ज्यूँ गुलशन में आती है बहार आहिस्ता-आहिस्ता किया हूँ रफ़्ता रफ़्ता राम उस की चश्म-ए-वहशी कूँ कि ज्यूँ आहू कूँ करते हैं शिकार आहिस्ता-आहिस्ता...

जिस दिलरुबा सूँ दिल कूँ मिरे इत्तिहाद है दीदार उस का मेरी अँखाँ की मुराद है रखता है बर में दिलबर-ए-रंगीं ख़याल कूँ मानिंद आरसी के जो साफ़ ए'तिक़ाद है...

तिरा लब देख हैवाँ याद आवे तिरा मुख देख कनआँ याद आवे तिरे दो नैन जब देखूँ नज़र भर मुझे तब नर्गिसिस्ताँ याद आवे...

जब तुझ अरक़ के वस्फ़ में जारी क़लम हुआ आलम में उस का नाँव जवाहर-रक़म हुआ नुक़्ते पे तेरे ख़ाल के बाँधा है जिन ने दिल वो दाएरे में इश्क़ के साबित-क़दम हुआ...

किया मुझ इश्क़ ने ज़ालिम कूँ आब आहिस्ता आहिस्ता कि आतिश गुल कूँ करती है गुलाब आहिस्ता आहिस्ता वफ़ादारी ने दिलबर की बुझाया आतिश-ए-ग़म कूँ कि गर्मी दफ़ा करता है गुलाब आहिस्ता आहिस्ता...

आज सरसब्ज़ कोह ओ सहरा है हर तरफ़ सैर है तमाशा है चेहरा-ए-यार ओ क़ामत-ए-ज़ेबा गुल-ए-रंगीन ओ सर्व-ए-रअना है...

न हो क्यूँ शोर दिल की बाँसुली में मलाहत का सलोना कान पहुँचा...

आज तुझ याद ने ऐ दिलबर-ए-शीरीं-हरकात आह को दिल के उपर तेशा-ए-फ़रहाद किया...

अगर गुलशन तरफ़ वो नौ-ख़त-ए-रंगीं-अदा निकले गुल ओ रैहाँ सूँ रंग-ओ-बू शिताबी पेशवा निकले खिले हर ग़ुंचा-ए-दिल ज्यूँ गुल-ए-शादाब शादी सूँ अगर टुक घर सूँ बाहर वो बहार-दिल-कुशा निकले...

जामा-ज़ेबों को क्यूँ तजूँ कि मुझे घेर रखता है दौर दामन का...

जिसे इश्क़ का तीर कारी लगे उसे ज़िंदगी क्यूँ न भारी लगे न छोड़े मोहब्बत दम-ए-मर्ग तक जिसे यार-ए-जानी सूँ यारी लगे...