लड़ के फिर आए डर गए शायद
लड़ के फिर आए डर गए शायद बिगड़े थे कुछ सँवर गए शायद सब परेशाँ दिली में शब गुज़री बाल उस के बिखर गए शायद कुछ ख़बर होती तो न होती ख़बर सूफि़याँ बे-ख़बर गए शायद हैं मकान ओ सरा ओ जा ख़ाली यार सब कूच कर गए शायद आँख आईना-रू छुपाते हैं दिल को ले कर मुकर गए शायद लोहू आँखों में अब नहीं आता ज़ख़्म अब दिल के भर गए शायद अब कहीं जंगलों में मिलते नहीं हज़रत-ए-ख़िज़्र मर गए शायद बे-कली भी क़फ़स में है दुश्वार काम से बाल ओ पर गए शायद शोर बाज़ार से नहीं उठता रात को 'मीर' घर गए शायद

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