काश उठें हम भी गुनहगारों के बीच
काश उठें हम भी गुनहगारों के बीच हों जो रहमत के सज़ा-वारों के बीच जी सदा उन अबरूओं ही में रहा की बसर हम उम्र तलवारों के बीच चश्म हो तो आईना-ख़ाना है दहर मुँह नज़र आता है दीवारों के बीच हैं अनासिर की ये सूरत बाज़ियाँ शोबदे क्या क्या हैं उन चारों के बीच जब से ले निकला है तू ये जिंस-ए-हुस्न पड़ गई है धूम बाज़ारों के बीच आशिक़ी ओ बेकसी ओ रफ़्तगी जी रहा कब ऐसे आज़ारों के बीच जो सरिश्क उस माह बिन झमके है शब वो चमक काहे को है तारों के बीच उस के आतिशनाक रुख़्सारों बग़ैर लोटिए यूँ कब तक अँगारों के बीच बैठना ग़ैरों में कब है नंग-ए-यार फूल गुल होते ही हैं ख़ारों के बीच यारो मत उस का फ़रेब-ए-मेहर खाओ 'मीर' भी थे उस के ही यारों के बीच

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