सच है हमीं को आप के शिकवे बजा न थे बे-शक सितम जनाब के सब दोस्ताना थे हाँ जो जफ़ा भी आप ने की क़ाएदे से की हाँ हम ही कारबंद-ए-उसूल-ए-वफ़ा न थे...
मोती हो कि शीशा जाम कि दुर जो टूट गया सो टूट गया कब अश्कों से जुड़ सकता है जो टूट गया सो छूट गया...
हम तो मजबूर थे इस दिल से कि जिस में हर दम गर्दिश-ए-ख़ूँ से वो कोहराम बपा रहता है जैसे रिंदान-ए-बला-नोश जो मिल बैठें बहम मय-कदे में सफ़र-ए-जाम बपा रहता है...
सब्ज़ा सब्ज़ा सूख रही है फीकी ज़र्द दोपहर दीवारों को चाट रहा है तन्हाई का ज़हर दूर उफ़ुक़ तक घटती बढ़ती उठती रहती है कोहर की सूरत बे-रौनक़ दर्दों की गदली लहर...
ये गलियों के आवारा बे-कार कुत्ते कि बख़्शा गया जिन को ज़ौक़-ए-गदाई ज़माने की फटकार सरमाया इन का जहाँ भर की धुत्कार इन की कमाई...
ये दाग़ दाग़ उजाला ये शब-गज़ीदा सहर वो इंतिज़ार था जिस का ये वो सहर तो नहीं ये वो सहर तो नहीं जिस की आरज़ू ले कर चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं न कहीं...
दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के वो जा रहा है कोई शब-ए-ग़म गुज़ार के वीराँ है मय-कदा ख़ुम ओ साग़र उदास हैं तुम क्या गए कि रूठ गए दिन बहार के...
यूँ सजा चाँद कि झलका तिरे अंदाज़ का रंग यूँ फ़ज़ा महकी कि बदला मिरे हमराज़ का रंग साया-ए-चश्म में हैराँ रुख़-ए-रौशन का जमाल सुर्ख़ी-ए-लब में परेशाँ तिरी आवाज़ का रंग...
आ कि वाबस्ता हैं उस हुस्न की यादें तुझ से जिस ने इस दिल को परी-ख़ाना बना रक्खा था जिस की उल्फ़त में भुला रक्खी थी दुनिया हम ने दहर को दहर का अफ़्साना बना रक्खा था...
अब जो कोई पूछे भी तो उस से क्या शरह-ए-हालात करें दिल ठहरे तो दर्द सुनाएँ दर्द थमे तो बात करें शाम हुई फिर जोश-ए-क़दह ने बज़्म-ए-हरीफ़ाँ रौशन की घर को आग लगाएँ हम भी रौशन अपनी रात करें...
कभी कभी याद में उभरते हैं नक़्श-ए-माज़ी मिटे मिटे से वो आज़माइश दिल ओ नज़र की वो क़ुर्बतें सी वो फ़ासले से कभी कभी आरज़ू के सहरा में आ के रुकते हैं क़ाफ़िले से वो सारी बातें लगाव की सी वो सारे उनवाँ विसाल के से...
बाम-ओ-दर ख़ामुशी के बोझ से चूर आसमानों से जू-ए-दर्द रवाँ चाँद का दुख-भरा फ़साना-ए-नूर शाह-राहों की ख़ाक में ग़लताँ...
इस वक़्त तो यूँ लगता है अब कुछ भी नहीं है महताब न सूरज, न अँधेरा न सवेरा आँखों के दरीचों पे किसी हुस्न की चिलमन और दिल की पनाहों में किसी दर्द का डेरा...
याद-ए-ग़ज़ाल-चश्माँ ज़िक्र-ए-समन-अज़ाराँ जब चाहा कर लिया है कुंज-ए-क़फ़स बहाराँ आँखों में दर्द-मंदी होंटों पे उज़्र-ख़्वाही जानाना वार आई शाम-ए-फ़िराक़-ए-याराँ...
आज यूँ मौज-दर-मौज ग़म थम गया इस तरह ग़म-ज़दों को क़रार आ गया जैसे ख़ुश-बू-ए-ज़ुल्फ़-ए-बहार आ गई जैसे पैग़ाम-ए-दीदार-ए-यार आ गया जिस की दीद-ओ-तलब वहम समझे थे हम रू-ब-रू फिर सर-ए-रहगुज़ार आ गया सुब्ह-ए-फ़र्दा को फिर दिल तरसने लगा उम्र-ए-रफ़्ता तिरा ए'तिबार आ गया...
फिर बर्क़ फ़रोज़ाँ है सर-ए-वादी-ए-सीना फिर रंग पे है शोला-ए-रुख़्सार-ए-हक़ीक़त पैग़ाम-ए-अजल दावत-ए-दीदार-ए-हक़ीक़त ऐ दीदा-ए-बीना...
और अग़्यार मुसिर हैं कि वो सब यार-ए-ग़ार हो गए हैं अब कोई नदीम-ए-बा-सफ़ा नहीं है सब रिंद शराब-ख़्वार हो गए हैं...
मिरी जाँ अब भी अपना हुस्न वापस फेर दे मुझ को अभी तक दिल में तेरे इश्क़ की क़िंदील रौशन है तिरे जल्वों से बज़्म-ए-ज़िंदगी जन्नत-ब-दामन है मिरी रूह अब भी तन्हाई में तुझ को याद करती है...
याद की राहगुज़र जिस पे इसी सूरत से मुद्दतें बीत गई हैं तुम्हें चलते चलते ख़त्म हो जाए जो दो चार क़दम और चलो मोड़ पड़ता है जहाँ दश्त-ए-फ़रामोशी का...
इज्ज़-ए-अहल-ए-सितम की बात करो इश्क़ के दम-क़दम की बात करो बज़्म-ए-अहल-ए-तरब को शरमाओ बज़्म-ए-असहाब-ए-ग़म की बात करो...
आए कुछ अब्र कुछ शराब आए इस के बअ'द आए जो अज़ाब आए बाम-ए-मीना से माहताब उतरे दस्त-ए-साक़ी में आफ़्ताब आए...
जिगर-दरीदा हूँ चाक-ए-जिगर की बात सुनो अलम-रसीदा हूँ दामान-ए-तर की बात सुनो ज़बाँ-बुरीदा हूँ ज़ख़्म-ए-गुलू से हर्फ़ करो शिकस्ता-पा हूँ मलाल-ए-सफ़र की बात सुनो...
यहाँ से शहर को देखो तो हल्क़ा-दर-हल्क़ा खिंची है जेल की सूरत हर एक सम्त फ़सील हर एक राहगुज़र गर्दिश-ए-असीराँ है न संग-ए-मील न मंज़िल न मुख़्लिसी कि सबील...
चाँद निकले किसी जानिब तिरी ज़ेबाई का रंग बदले किसी सूरत शब-ए-तन्हाई का दौलत-ए-लब से फिर ऐ ख़ुसरव-ए-शीरीं-दहनाँ आज अर्ज़ां हो कोई हर्फ़ शनासाई का...
क़ंद-ए-दहन कुछ इस से ज़ियादा लुत्फ़-ए-सुख़न कुछ इस से ज़ियादा फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ में लुत्फ़-ए-बहाराँ बर्ग-ए-समन कुछ इस से ज़ियादा...
जो तलब पे अहद-ए-वफ़ा किया तो वो आबरू-ए-वफ़ा गई सर-ए-आम जब हुए मुद्दई तो सवाब-ए-सिदक़-ओ-वफ़ा गया...
अब क्यूँ उस दिन का ज़िक्र करो जब दिल टुकड़े हो जाएगा और सारे ग़म मिट जाएँगे जो कुछ पाया खो जाएगा...
और कुछ देर में जब फिर मिरे तन्हा दिल को फ़िक्र आ लेगी कि तन्हाई का क्या चारा करे दर्द आएगा दबे पाँव लिए सुर्ख़ चराग़ वो जो इक दर्द धड़कता है कहीं दिल से परे...
आज से बारा बरस पहले बड़ा भाई मिरा स्टालिनग्राड की जंगाह में काम आया था मेरी माँ अब भी लिए फिरती है पहलू में ये ग़म जब से अब तक है वही तन पे रिदा-ए-मातम...
फिर हरीफ़-ए-बहार हो बैठे जाने किस किस को आज रो बैठे थी मगर इतनी राएगाँ भी न थी आज कुछ ज़िंदगी से खो बैठे...
आज इक हर्फ़ को फिर ढूँडता फिरता है ख़याल मध भरा हर्फ़ कोई ज़हर भरा हर्फ़ कोई दिल-नशीं हर्फ़ कोई क़हर भरा हर्फ़ कोई हर्फ़-ए-उल्फ़त कोई दिलदार-ए-नज़र हो जैसे...
तेरी सूरत जो दिल-नशीं की है आश्ना शक्ल हर हसीं की है हुस्न से दिल लगा के हस्ती की हर घड़ी हम ने आतिशीं की है...
बैरूत निगार-ए-बज़्म-ए-जहाँ बैरूत बदील-ए-बाग़-ए-जिनाँ बच्चों की हँसती आँखों के जो आइने चकना-चूर हुए...