मिरी जाँ अब भी अपना हुस्न वापस फेर दे मुझ को
मिरी जाँ अब भी अपना हुस्न वापस फेर दे मुझ को अभी तक दिल में तेरे इश्क़ की क़िंदील रौशन है तिरे जल्वों से बज़्म-ए-ज़िंदगी जन्नत-ब-दामन है मिरी रूह अब भी तन्हाई में तुझ को याद करती है हर इक तार-ए-नफ़स में आरज़ू बेदार है अब भी हर इक बे-रंग साअत मुंतज़िर है तेरी आमद की निगाहें बिछ रही हैं रास्ता ज़र-कार है अब भी मगर जान-ए-हज़ीं सदमे सहेगी आख़िरश कब तक तिरी बे-मेहरियों पर जान देगी आख़िरश कब तक तिरी आवाज़ में सोई हुई शीरीनियाँ आख़िर मिरे दिल की फ़सुर्दा ख़ल्वतों में जा न पाएँगी ये अश्कों की फ़रावानी से धुँदलाई हुई आँखें तिरी रानाइयों की तमकनत को भूल जाएँगी पुकारेंगे तुझे तो लब कोई लज़्ज़त न पाएँगे गुलू में तेरी उल्फ़त के तराने सूख जाएँगे मबादा याद-हा-ए-अहद-ए-माज़ी महव हो जाएँ ये पारीना फ़साने मौज-हा-ए-ग़म में खो जाएँ मिरे दिल की तहों से तेरी सूरत धुल के बह जाए हरीम-ए-इश्क़ की शम-ए-दरख़्शाँ बुझ के रह जाए मबादा अजनबी दुनिया की ज़ुल्मत घेर ले तुझ को मिरी जाँ अब भी अपना हुस्न वापस फेर दे मुझ को

Read Next