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मलक-ए-शहर-ए-ज़िंदगी तेरा शुक्र किस तौर से अदा कीजे दौलत-ए-दिल का कुछ शुमार नहीं तंग-दस्ती का क्या गिला कीजे...

पहली आवाज़ अब सई का इम्काँ और नहीं पर्वाज़ का मज़मूँ हो भी चुका तारों पे कमंदें फेंक चुके महताब पे शब-ख़ूँ हो भी चुका अब और किसी फ़र्दा के लिए उन आँखों से क्या पैमाँ कीजे...

ग़म-ब-दिल शुक्र-ब-लब मस्त ओ ग़ज़ल-ख़्वाँ चलिए जब तिलक साथ तिरे उम्र-ए-गुरेज़ाँ चलिए रहमत-ए-हक़ से जो इस सम्त कभी राह मिले सू-ए-जन्नत भी ब-राह-ए-रह-ए-जानाँ चलिए...

शाम-ए-फ़िराक़ अब न पूछ आई और आ के टल गई दिल था कि फिर बहल गया जाँ थी कि फिर सँभल गई बज़्म-ए-ख़याल में तिरे हुस्न की शम्अ जल गई दर्द का चाँद बुझ गया हिज्र की रात ढल गई...

यूँ सजा चाँद कि झलका तिरे अंदाज़ का रंग यूँ फ़ज़ा महकी कि बदला मिरे हमराज़ का रंग...

सभी कुछ है तेरा दिया हुआ सभी राहतें सभी कुल्फ़तें कभी सोहबतें कभी फ़ुर्क़तें कभी दूरियाँ कभी क़ुर्बतें ये सुख़न जो हम ने रक़म किए ये हैं सब वरक़ तिरी याद के कोई लम्हा सुब्ह-ए-विसाल का कोई शाम-ए-हिज्र की मुद्दतें...

दर्द इतना था कि उस रात दिल-ए-वहशी ने हर रग-ए-जाँ से उलझना चाहा हर बुन-ए-मू से टपकना चाहा और कहीं दूर तिरे सहन में गोया...

वो बुतों ने डाले हैं वसवसे कि दिलों से ख़ौफ़-ए-ख़ुदा गया वो पड़ी हैं रोज़ क़यामतें कि ख़याल-ए-रोज़-ए-जज़ा गया जो नफ़स था ख़ार-ए-गुलू बना जो उठे थे हाथ लहू हुए वो नशात-ए-आह-ए-सहर गई वो वक़ार-ए-दस्त-ए-दुआ गया...

हमीं से अपनी नवा हम-कलाम होती रही ये तेग़ अपने लहू में नियाम होती रही मुक़ाबिल-ए-सफ़-ए-आदा जिसे किया आग़ाज़ वो जंग अपने ही दिल में तमाम होती रही...

दिल को एहसास से दो-चार न कर देना था साज़-ए-ख़्वाबीदा को बेदार न कर देना था अपने मासूम तबस्सुम की फ़रावानी को वुसअत-ए-दीद पे गुल-बार न कर देना था...

तसव्वुर शोख़ियाँ मुज़्तर-निगाह-ए-दीदा-ए-सरशार में इशरतें ख़्वाबीदा रंग-ए-ग़ाज़ा-ए-रुख़सार में सुर्ख़ होंटों पर तबस्सुम की ज़ियाएँ जिस तरह...

जब सूरज ने जाते जाते अश्गाबाद के नीले उफ़ुक़ से अपने सुनहरी जाम में ढाली...

कुछ पहले इन आँखों आगे क्या क्या न नज़ारा गुज़रे था क्या रौशन हो जाती थी गली जब यार हमारा गुज़रे था थे कितने अच्छे लोग कि जिन को अपने ग़म से फ़ुर्सत थी सब पूछें थे अहवाल जो कोई दर्द का मारा गुज़रे था...

नहीं है यूँ तो नहीं है कि अब नहीं पैदा कसी के हुस्न में शमशीर-ए-आफ़्ताब का हुस्न निगाह जिस से मिलाओ तो आँख दुखने लगे किसी अदा में अदा-ए-ख़िराम-ए-बाद-ए-सबा...

आओ कि मर्ग-ए-सोज़-ए-मोहब्बत मनाएँ हम आओ कि हुस्न-ए-माह से दिल को जलाएँ हम ख़ुश हूँ फ़िराक़-ए-क़ामत-ओ-रुख़्सार-ए-यार से सर्व-ओ-गुल-ओ-समन से नज़र को सताएँ हम...

ज़िंदगी क्या किसी मुफ़्लिस की क़बा है जिस में हर घड़ी दर्द के पैवंद लगे जाते हैं...

पिंदार के ख़ूगर को नाकाम भी देखोगे आग़ाज़ से वाक़िफ़ हो अंजाम भी देखोगे...

तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं हदीस-ए-यार के उनवाँ निखरने लगते हैं तो हर हरीम में गेसू सँवरने लगते हैं...

मुझ को शिकवा है मिरे भाई कि तुम जाते हुए ले गए साथ मिरी उम्र-ए-गुज़िश्ता की किताब इस में तो मेरी बहुत क़ीमती तस्वीरें थीं इस में बचपन था मिरा और मिरा अहद-ए-शबाब...

मिरी तिरी निगाह में जो लाख इंतिज़ार हैं जो मेरे तेरे तन-बदन में लाख दिल-फ़िगार हैं...

क़र्ज़-ए-निगाह-ए-यार अदा कर चुके हैं हम सब कुछ निसार-ए-राह-ए-वफ़ा कर चुके हैं हम कुछ इम्तिहान-ए-दस्त-ए-जफ़ा कर चुके हैं हम कुछ उन की दस्तरस का पता कर चुके हैं हम...

ख़ुदा वो वक़्त न लाए कि सोगवार हो तू सकूँ की नींद तुझे भी हराम हो जाए तिरी मसर्रत-ए-पैहम तमाम हो जाए तिरी हयात तुझे तल्ख़ जाम हो जाए...

तह-ब-तह दिल की कुदूरत मेरी आँखों में उमँड आई तो कुछ चारा न था चारा-गर की मान ली और मैं ने गर्द-आलूद आँखों को लहू से धो लिया...

ये मौसम-ए-गुल गरचे तरब-ख़ेज़ बहुत है अहवाल-ए-गुल-ओ-लाला ग़म-अंगेज़ बहुत है ख़ुश दावत-ए-याराँ भी है यलग़ार-ए-अदू भी क्या कीजिए दिल का जो कम-आमेज़ बहुत है...

जीने के लिए मरना ये कैसी सआदत है मरने के लिए जीना ये कैसी हिमाक़त है...

शरह-ए-बेदर्दी-ए-हालात न होने पाई अब के भी दिल की मुदारात न होने पाई फिर वही वा'दा जो इक़रार न बनने पाया फिर वही बात जो इसबात न होने पाई...

आज इक हर्फ़ को फिर ढूँढता फिरता है ख़याल मध-भरा हर्फ़ कोई, ज़हर-भरा हर्फ़ कोई दिल-नशीं हर्फ़ कोई क़हर-भरा हर्फ़ कोई हर्फ़-ए-उल्फ़त कोई दिलदार नज़र हो जैसे...

हुस्न मरहून-ए-जोश-ए-बादा-ए-नाज़ इश्क़ मिन्नत-कश-ए-फ़ुसून-ए-नियाज़ दिल का हर तार लर्ज़िश-ए-पैहम जाँ का हर रिश्ता वक़्फ़-ए-सोज़-ओ-गुदाज़...

नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तुजू ही सही नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही...

दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया तुझ से भी दिल-फ़रेब हैं ग़म रोज़गार के...

शाम-ए-फ़िराक़ अब न पूछ आई और आ के टल गई दिल था कि फिर बहल गया जाँ थी कि फिर सँभल गई...

ऐ शाम मेहरबाँ हो ऐ शाम-ए-शहरयाराँ हम पे भी मेहरबाँ हो दोज़ख़ी दोपहर सितम की...

देखने की तो किसे ताब है लेकिन अब तक जब भी उस राह से गुज़रो तो किसी दुख की कसक टोकती है कि वो दरवाज़ा खुला है अब भी और उस सेहन में हरसू यूँही पहले की तरह...

वो वक़्त मिरी जान बहुत दूर नहीं है जब दर्द से रुक जाएँगी सब ज़ीस्त की राहें और हद से गुज़र जाएगा अंदोह-ए-निहानी थक जाएँगी तरसी हुई नाकाम निगाहें...

गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले...

हैं लबरेज़ आहों से ठंडी हवाएँ उदासी में डूबी हुई हैं घटाएँ मोहब्बत की दुनिया पे शाम आ चुकी है सियह-पोश हैं ज़िंदगी की फ़ज़ाएँ...

हम मुसाफ़िर यूँही मसरूफ़-ए-सफ़र जाएँगे बे-निशाँ हो गए जब शहर तो घर जाएँगे किस क़दर होगा यहाँ मेहर ओ वफ़ा का मातम हम तिरी याद से जिस रोज़ उतर जाएँगे...

दूर जा कर क़रीब हो जितने हम से कब तुम क़रीब थे इतने अब न आओगे तुम न जाओगे वस्ल-ए-हिज्राँ बहम हुए कितने...

कटते भी चलो बढ़ते भी चलो बाज़ू भी बहुत हैं सर भी बहुत चलते भी चलो कि अब डेरे मंज़िल ही पे डाले जाएँगे...

मैं जहाँ पर भी गया अर्ज़-ए-वतन तेरी तज़लील के दाग़ों की जलन दिल में लिए तेरी हुर्मत के चराग़ों की लगन दिल में लिए तेरी उल्फ़त तिरी यादों की कसक साथ गई...