ख़याल ओ शेर की दुनिया में जान थी जिन से फ़ज़ा-ए-फ़िक्र-ओ-अमल अर्ग़वान थी जिन से वो जिन के नूर से शादाब थे मह-ओ-अंजुम जुनून-ए-इश्क़ की हिम्मत जवान थी जिन से...
उस ने जब बोलना न सीखा था उस की हर बात मैं समझती थी अब वो शाएर बना है नाम-ए-ख़ुदा लेकिन अफ़सोस कोई बात उस की...
हम अहल-ए-क़फ़स तन्हा भी नहीं हर रोज़ नसीम-ए-सुब्ह-ए-वतन यादों से मोअत्तर आती है अश्कों से मुनव्वर जाती है...
कस तरह बयाँ हो तिरा पैराया-ए-तक़रीर गोया सर-ए-बातिल पे चमकने लगी शमशीर वो ज़ोर है इक लफ़्ज़ इधर नुत्क़ से निकला वाँ सीना-ए-अग़्यार में पैवस्त हुए तीर...
चश्म-नम जान-ए-शोरीदा काफ़ी नहीं तोहमत-ए-इश्क़-ए-पोशीदा काफ़ी नहीं आज बाज़ार में पा-ब-जौलाँ चलो दस्त-अफ़्शाँ चलो मस्त ओ रक़्साँ चलो...
मुझे मोजज़ों पे यक़ीं नहीं मगर आरज़ू है कि जब क़ज़ा मुझे बज़्म-ए-दहर से ले चले तो फिर एक बार ये इज़्न दे कि लहद से लौट के आ सकूँ...
दिल के ऐवाँ में लिए गुल-शुदा शम्ओं की क़तार नूर-ए-ख़ुर्शीद से सहमे हुए उकताए हुए हुस्न-ए-महबूब के सय्याल तसव्वुर की तरह अपनी तारीकी को भेंचे हुए लिपटाए हुए...
क्यूँ मेरा दिल शाद नहीं है क्यूँ ख़ामोश रहा करता हूँ छोड़ो मेरी राम-कहानी मैं जैसा भी हूँ अच्छा हूँ...
आया हमारे देस में इक ख़ुश-नवा फ़क़ीर आया और अपनी धुन में ग़ज़ल-ख़्वाँ गुज़र गया सुनसान राहें ख़ल्क़ से आबाद हो गईं वीरान मय-कदों का नसीबा सँवर गया...
आज की रात साज़-ए-दर्द न छेड़ दुख से भरपूर दिन तमाम हुए और कल की ख़बर किसे मालूम दोश-ओ-फ़र्दा की मिट चुकी हैं हुदूद...
तुम न आए थे तो हर इक चीज़ वही थी कि जो है आसमाँ हद्द-ए-नज़र राहगुज़र राहगुज़र शीशा-ए-मय शीशा-ए-मय और अब शीशा-ए-मय राहगुज़र रंग-ए-फ़लक रंग है दिल का मिरे ख़ून-ए-जिगर होने तक...
गो सब को बहम साग़र ओ बादा तो नहीं था ये शहर उदास इतना ज़ियादा तो नहीं था गलियों में फिरा करते थे दो चार दिवाने हर शख़्स का सद चाक लबादा तो नहीं था...
जब दुख की नदिया में हम ने जीवन की नाव डाली थी था कितना कस-बल बाँहों में लोहू में कितनी लाली थी...
फिर फुरेरे बन के मेरे तन-बदन की धज्जियाँ शहर के दीवार-ओ-दर को रंग पहनाने लगीं फिर कफ़-आलूदा ज़बानें मदह ओ ज़म की कुमचियाँ मेरे ज़ेहन ओ गोश के ज़ख़्मों पे बरसाने लगीं...
बहार आई तो जैसे यक-बार लौट आए हैं फिर अदम से वो ख़्वाब सारे शबाब सारे जो तेरे होंटों पे मर-मिटे थे...
अब बज़्म-ए-सुख़न सोहबत-ए-लब-सोख़्तगाँ है अब हल्क़ा-ए-मय ताइफ़ा-ए-बे-तलबाँ है घर रहिए तो वीरानी-ए-दिल खाने को आवे रह चलिए तो हर गाम पे ग़ौग़ा-ए-सगाँ है...
और कुछ देर में लुट जाएगा हर बाम पे चाँद अक्स खो जाएँगे आईने तरस जाएँगे अर्श के दीदा-ए-नमनाक से बारी-बारी सब सितारे सर-ए-ख़ाशाक बरस जाएँगे...
छलनी है अँधेरे का सीना, बरखा के भाले बरसे हैं दीवारों के आँसू हैं रवाँ, घर ख़ामोशी में डूबे हैं पानी में नहाए हैं बूटे गलियों में हू का फेरा है...
साल-हा-साल ये बे-आसरा जकड़े हुए हाथ रात के सख़्त ओ सियह सीने मैं पैवस्त रहे जिस तरह तिनका समुंदर से हो सरगर्म-ए-सतेज़ जिस तरह तीतरी कोहसार पे यलग़ार करे...
न किसी पे ज़ख़्म अयाँ कोई न किसी को फ़िक्र रफ़ू की है न करम है हम पे हबीब का न निगाह हम पे अदू की है सफ़-ए-ज़ाहिदाँ है तो बे-यक़ीं सफ़-ए-मै-कशाँ है तो बे-तलब न वो सुब्ह विर्द-ओ-वुज़ू की है न वो शाम जाम-ओ-सुबू की है...
ज़ालिम जश्न है मातम-ए-उम्मीद का आओ लोगो मर्ग-ए-अम्बोह का त्यौहार मनाओ लोगो अदम-आबाद को आबाद किया है मैं ने...
रविश-रविश है वही इंतिज़ार का मौसम नहीं है कोई भी मौसम बहार का मौसम गिराँ है दिल पे ग़म-ए-रोज़गार का मौसम है आज़माइश-ए-हुस्न-ए-निगार का मौसम...
रौशन कहीं बहार के इम्काँ हुए तो हैं गुलशन में चाक चंद गरेबाँ हुए तो हैं अब भी ख़िज़ाँ का राज है लेकिन कहीं कहीं गोशे रह-ए-चमन में ग़ज़ल-ख़्वाँ हुए तो हैं...
नसीब आज़माने के दिन आ रहे हैं क़रीब उन के आने के दिन आ रहे हैं जो दिल से कहा है जो दिल से सुना है सब उन को सुनाने के दिन आ रहे हैं...
किसी गुमाँ पे तवक़्क़ो ज़ियादा रखते हैं फिर आज कू-ए-बुताँ का इरादा रखते हैं बहार आएगी जब आएगी ये शर्त नहीं कि तिश्ना-काम रहें गरचे बादा रखते हैं...
कुछ मोहतसिबों की ख़ल्वत में कुछ वाइज़ के घर जाती है हम बादा-कशों के हिस्से की अब जाम में कम-तर जाती है यूँ अर्ज़-ओ-तलब से कम ऐ दिल पत्थर दिल पानी होते हैं तुम लाख रज़ा की ख़ू डालो कब ख़ू-ए-सितमगर जाती है...
इस तरह है कि हर इक पेड़ कोई मंदिर है कोई उजड़ा हुआ, बे-नूर पुराना मंदिर ढूँढता है जो ख़राबी के बहाने कब से चाक-ए-हर-बाम हर इक दर का दम-ए-आख़िर है...
दूर आफ़ाक़ पे लहराई कोई नूर की लहर ख़्वाब ही ख़्वाब में बेदार हुआ दर्द का शहर ख़्वाब ही ख़्वाब में बेताब नज़र होने लगी अदम-आबाद-ए-जुदाई में सहर होने लगी...
दिल में अब यूँ तिरे भूले हुए ग़म आते हैं जैसे बिछड़े हुए काबे में सनम आते हैं एक इक कर के हुए जाते हैं तारे रौशन मेरी मंज़िल की तरफ़ तेरे क़दम आते हैं...
अब वही हर्फ़-ए-जुनूँ सब की ज़बाँ ठहरी है जो भी चल निकली है वो बात कहाँ ठहरी है आज तक शैख़ के इकराम में जो शय थी हराम अब वही दुश्मन-ए-दीं राहत-ए-जाँ ठहरी है...
मेरे आबा कि थे ना-महरम-ए-तौक़-ओ-ज़ंजीर वो मज़ामीं जो अदा करता है अब मेरा क़लम नोक-ए-शमशीर पे लिखते थे ब-नोक-ए-शमशीर रौशनाई से जो मैं करता हूँ काग़ज़ पे रक़म...