शाम
इस तरह है कि हर इक पेड़ कोई मंदिर है कोई उजड़ा हुआ, बे-नूर पुराना मंदिर ढूँढता है जो ख़राबी के बहाने कब से चाक-ए-हर-बाम हर इक दर का दम-ए-आख़िर है आसमाँ कोई पुरोहित है जो हर बाम-तले जिस्म पर राख मले माथे पे सिन्दूर मले सर-निगूँ बैठा है चुप-चाप न जाने कब से इस तरह है कि पस-ए-पर्दा कोई साहिर है जिस ने आफ़ाक़ पे फैलाया है यूँ सेहर का दाम दामन-ए-वक़्त से पैवस्त है यूँ दामन-ए-शाम अब कभी शाम बुझेगी न अँधेरा होगा अब कभी रात ढलेगी न सवेरा होगा आसमाँ आस लिए है कि ये जादू टूटे चुप की ज़ंजीर कटे, वक़्त का दामन छूटे दे कोई संख दुहाई कोई पायल बोले कोई बुत जागे, कोई साँवली घूँघट खोले

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