एक शहर-आशोब का आग़ाज़
अब बज़्म-ए-सुख़न सोहबत-ए-लब-सोख़्तगाँ है अब हल्क़ा-ए-मय ताइफ़ा-ए-बे-तलबाँ है घर रहिए तो वीरानी-ए-दिल खाने को आवे रह चलिए तो हर गाम पे ग़ौग़ा-ए-सगाँ है पैवंद-ए-रह-ए-कूचा-ए-ज़र चश्म-ए-ग़ज़ालाँ पाबोस-ए-हवस अफ़सर-ए-शमशाद-क़दाँ है याँ अहल-ए-जुनूँ यक-ब-दिगर दस्त-ओ-गिरेबाँ वाँ जैश-ए-हवस तेग़-ब-कफ़ दरपा-ए-जाँ है अब साहब-ए-इंसाफ़ है ख़ुद तालिब-ए-इंसाफ़ मोहर उस की है मीज़ान ब-दस्त-ए-दिगराँ है हम सहल-तलब कौन से फ़रहाद थे लेकिन अब शहर में तेरे कोई हम सा भी कहाँ है

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