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कभी नेकी भी उस के जी में गर आ जाए है मुझ से जफ़ाएँ कर के अपनी याद शरमा जाए है मुझ से ख़ुदाया जज़्बा-ए-दिल की मगर तासीर उल्टी है कि जितना खींचता हूँ और खिंचता जाए है मुझ से...

है किस क़दर हलाक-ए-फ़रेब-ए-वफ़ा-ए-गुल बुलबुल के कारोबार पे हैं ख़ंदा-हा-ए-गुल आज़ादी-ए-नसीम मुबारक कि हर तरफ़ टूटे पड़े हैं हल्क़ा-ए-दाम-ए-हवा-ए-गुल...

ज़हर मिलता ही नहीं मुझ को सितमगर वर्ना क्या क़सम है तिरे मिलने की कि खा भी न सकूँ...

शब कि बर्क़-ए-सोज़-ए-दिल से ज़हरा-ए-अब्र आब था शोला-ए-जव्वाला हर यक हल्क़ा-ए-गिर्दाब था वाँ करम को उज़्र-ए-बारिश था इनाँ-गीर-ए-ख़िराम गिर्ये से याँ पुम्बा-ए-बालिश कफ़-ए-सैलाब था...

वा-हसरता कि यार ने खींचा सितम से हाथ हम को हरीस-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार देख कर...

हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरिया न कभी जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता...

क़तरा-ए-मय बस-कि हैरत से नफ़स-परवर हुआ ख़त्त-ए-जाम-ए-मै सरासर रिश्ता-ए-गौहर हुआ ए'तिबार-ए-इश्क़ की ख़ाना-ख़राबी देखना ग़ैर ने की आह लेकिन वो ख़फ़ा मुझ पर हुआ...

ईमाँ मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ़्र काबा मिरे पीछे है कलीसा मिरे आगे...

उस अंजुमन-ए-नाज़ की क्या बात है 'ग़ालिब' हम भी गए वाँ और तिरी तक़दीर को रो आए...

अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा जिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा...

सँभलने दे मुझे ऐ ना-उम्मीदी क्या क़यामत है कि दामान-ए-ख़याल-ए-यार छूटा जाए है मुझ से...

सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं ख़ाक में क्या सूरतें होंगी कि पिन्हाँ हो गईं...

रंज का ख़ूगर हुआ इंसाँ तो मिट जाता है रंज मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसाँ हो गईं...

तपिश से मेरी वक़्फ़-ए-कशमकश हर तार-ए-बिस्तर है मिरा सर रंज-ए-बालीं है मिरा तन बार-ए-बिस्तर है सरिश्क-ए-सर ब-सहरा दादा नूर-उल-ऐन-ए-दामन है दिल-ए-बे-दस्त-ओ-पा उफ़्तादा बर-ख़ुरदार-ए-बिस्तर है...

तंगी-ए-दिल का गिला क्या ये वो काफ़िर-दिल है कि अगर तंग न होता तो परेशाँ होता...

ज़ख़्म पर छिड़कें कहाँ तिफ़्लान-ए-बे-परवा नमक क्या मज़ा होता अगर पत्थर में भी होता नमक गर्द-ए-राह-ए-यार है सामान-ए-नाज़-ए-ज़ख़्म-ए-दिल वर्ना होता है जहाँ में किस क़दर पैदा नमक...

ये कहाँ की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह कोई चारासाज़ होता कोई ग़म-गुसार होता...

अगले वक़्तों के हैं ये लोग इन्हें कुछ न कहो जो मय ओ नग़्मा को अंदोह-रुबा कहते हैं...

पूछते हैं वो कि 'ग़ालिब' कौन है कोई बतलाओ कि हम बतलाएँ क्या...

हाँ वो नहीं ख़ुदा-परस्त जाओ वो बेवफ़ा सही जिस को हो दीन ओ दिल अज़ीज़ उस की गली में जाए क्यूँ...

आबरू क्या ख़ाक उस गुल की कि गुलशन में नहीं है गरेबाँ नंग-ए-पैराहन जो दामन में नहीं ज़ोफ़ से ऐ गिर्या कुछ बाक़ी मिरे तन में नहीं रंग हो कर उड़ गया जो ख़ूँ कि दामन में नहीं...

बस-कि हूँ 'ग़ालिब' असीरी में भी आतिश ज़ेर-ए-पा मू-ए-आतिश दीदा है हल्क़ा मिरी ज़ंजीर का...

वो चीज़ जिस के लिए हम को हो बहिश्त अज़ीज़ सिवाए बादा-ए-गुलफ़ाम-ए-मुश्क-बू क्या है...

भागे थे हम बहुत सो उसी की सज़ा है ये हो कर असीर दाबते हैं राहज़न के पाँव...

क्यूँकर उस बुत से रखूँ जान अज़ीज़ क्या नहीं है मुझे ईमान अज़ीज़...

बे-नियाज़ी हद से गुज़री बंदा-परवर कब तलक हम कहेंगे हाल-ए-दिल और आप फ़रमावेंगे क्या...

क्यूँ गर्दिश-ए-मुदाम से घबरा न जाए दिल इंसान हूँ पियाला ओ साग़र नहीं हूँ मैं...

आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक दाम-ए-हर-मौज में है हल्क़ा-ए-सद-काम-ए-नहंग देखें क्या गुज़रे है क़तरे पे गुहर होते तक...

नुक्ता-चीं है ग़म-ए-दिल उस को सुनाए न बने क्या बने बात जहाँ बात बताए न बने मैं बुलाता तो हूँ उस को मगर ऐ जज़्बा-ए-दिल उस पे बन जाए कुछ ऐसी कि बिन आए न बने...

धमकी में मर गया जो न बाब-ए-नबर्द था इश्क़-ए-नबर्द-पेशा तलबगार-ए-मर्द था था ज़िंदगी में मर्ग का खटका लगा हुआ उड़ने से पेश-तर भी मिरा रंग ज़र्द था...

'ग़ालिब' न कर हुज़ूर में तू बार बार अर्ज़ ज़ाहिर है तेरा हाल सब उन पर कहे बग़ैर...

हम कहाँ के दाना थे किस हुनर में यकता थे बे-सबब हुआ 'ग़ालिब' दुश्मन आसमाँ अपना...

बोसा देते नहीं और दिल पे है हर लहज़ा निगाह जी में कहते हैं कि मुफ़्त आए तो माल अच्छा है...

'असद' हम वो जुनूँ-जौलाँ गदा-ए-बे-सर-ओ-पा हैं कि है सर-पंजा-ए-मिज़्गान-ए-आहू पुश्त-ख़ार अपना...

फिर हुआ वक़्त कि हो बाल-कुशा मौज-ए-शराब दे बत-ए-मय को दिल-ओ-दस्त-ए-शना मौज-ए-शराब पूछ मत वजह-ए-सियह-मस्ती-ए-अरबाब-ए-चमन साया-ए-ताक में होती है हवा मौज-ए-शराब...

ज़ोफ़ से गिर्या मुबद्दल ब-दम-ए-सर्द हुआ बावर आया हमें पानी का हवा हो जाना...

चाक की ख़्वाहिश अगर वहशत ब-उर्यानी करे सुब्ह के मानिंद ज़ख़्म-ए-दिल गरेबानी करे जल्वे का तेरे वो आलम है कि गर कीजे ख़याल दीदा-ए-दिल को ज़ियारत-गाह-ए-हैरानी करे...

हो गई है ग़ैर की शीरीं-बयानी कारगर इश्क़ का उस को गुमाँ हम बे-ज़बानों पर नहीं ज़ब्त से मतलब बजुज़ वारस्तगी दीगर नहीं दामन-ए-तिमसाल आब-ए-आइना से तर नहीं...

वो फ़िराक़ और वो विसाल कहाँ वो शब-ओ-रोज़ ओ माह-ओ-साल कहाँ फ़ुर्सत-ए-कारोबार-ए-शौक़ किसे ज़ौक़-ए-नज़्ज़ारा-ए-जमाल कहाँ...

नज़र लगे न कहीं इन के दस्त-ओ-बाज़ू को ये लोग क्यूँ मिरे ज़ख़्म-ए-जिगर को देखते हैं...