हो गया जिस दिन से अपने दिल पर उस को इख़्तियार इख़्तियार अपना गया बे-इख़्तियारी रह गई...
फ़रहाद ओ क़ैस ओ वामिक़ ओ अज़रा थे चार दोस्त अब हम भी आ मिले तो हुए मिल के चार पाँच...
सहम कर ऐ 'ज़फ़र' उस शोख़ कमाँ-दार से कह खींच कर देख मिरे सीने से तू तीर न तोड़...
करेंगे क़स्द हम जिस दम तुम्हारे घर में आवेंगे जो होगी उम्र भर की राह तो दम भर में आवेंगे अगर हाथों से उस शीरीं-अदा के ज़ब्ह होंगे हम तो शर्बत के से घूँट आब-ए-दम-ए-ख़ंजर में आवेंगे...
क्या कहूँ दिल माइल-ए-ज़ुल्फ़-ए-दोता क्यूँकर हुआ ये भला चंगा गिरफ़्तार-ए-बला क्यूँकर हुआ जिन को मेहराब-ब-इबादत हो ख़म-ए-अबरू-ए-यार उन का काबे में कहो सज्दा अदा क्यूँकर हुआ...
गालियाँ तनख़्वाह ठहरी है अगर बट जाएगी आशिक़ों के घर मिठाई लब शकर बट जाएगी रू-ब-रू गर होगा यूसुफ़ और तू आ जाएगा उस की जानिब से ज़ुलेख़ा की नज़र बट जाएगी...
तुफ़्ता-जानों का इलाज ऐ अहल-ए-दानिश और है इश्क़ की आतिश बला है उस की सोज़िश और है क्यूँ न वहशत में चुभे हर मू ब-शक्ल-ए-नीश-तेज़ ख़ार-ए-ग़म की तेरे दीवाने की काविश और है...
'ज़फ़र' आदमी उस को न जानिएगा वो हो कैसा ही साहब-ए-फ़हम-ओ-ज़का जिसे ऐश में याद-ए-ख़ुदा न रही जिसे तैश में ख़ौफ़-ए-ख़ुदा न रहा...
मोहब्बत चाहिए बाहम हमें भी हो तुम्हें भी हो ख़ुशी हो इस में या हो ग़म हमें भी हो तुम्हें भी हो ग़नीमत तुम इसे समझो कि इस ख़ुम-ख़ाने में यारो नसीब इक-दम दिल-ए-ख़ुर्रम हमें भी हो तुम्हें भी हो...
न थी हाल की जब हमें अपने ख़बर रहे देखते औरों के ऐब ओ हुनर पड़ी अपनी बुराइयों पर जो नज़र तो निगाह में कोई बुरा न रहा...
शाने की हर ज़बाँ से सुने कोई लाफ़-ए-ज़ुल्फ़ चीरे है सीना रात को ये मू-शिगाफ़-ए-ज़ुल्फ़ जिस तरह से कि काबे पे है पोशिश-ए-सियाह इस तरह इस सनम के है रुख़ पर ग़िलाफ़-ए-ज़ुल्फ़...
ये क़िस्सा वो नहीं तुम जिस को क़िस्सा-ख़्वाँ से सुनो मिरे फ़साना-ए-ग़म को मिरी ज़बाँ से सुनो सुनाओ दर्द-ए-दिल अपना तो दम-ब-दम फ़रियाद मिसाल-ए-नय मिरी हर एक उस्तुख़्वाँ से सुनो...
मर्ग ही सेहत है उस की मर्ग ही उस का इलाज इश्क़ का बीमार क्या जाने दवा क्या चीज़ है...
न उस का भेद यारी से न अय्यारी से हाथ आया ख़ुदा आगाह है दिल की ख़बरदारी से हाथ आया न हों जिन के ठिकाने होश वो मंज़िल को क्या पहुँचे कि रस्ता हाथ आया जिस की हुश्यारी से हाथ आया...
ज़ुल्फ़ जो रुख़ पर तिरे ऐ मेहर-ए-तलअत खुल गई हम को अपनी तीरा-रोज़ी की हक़ीक़त खुल गई क्या तमाशा है रग-ए-लैला में डूबा नीश्तर फ़स्द-ए-मजनूँ बाइस-ए-जोश-ए-मोहब्बत खुल गई...
बुत-परस्ती जिस से होवे हक़-परस्ती ऐ 'ज़फ़र' क्या कहूँ तुझ से कि वो तर्ज़-ए-परस्तिश और है...
वाँ रसाई नहीं तो फिर क्या है ये जुदाई नहीं तो फिर क्या है हो मुलाक़ात तो सफ़ाई से और सफ़ाई नहीं तो फिर क्या है...
क़ारूँ उठा के सर पे सुना गंज ले चला दुनिया से क्या बख़ील ब-जुज़ रंज ले चला मिन्नत थी बोसा-ए-लब-ए-शीरीं कि दिल मिरा मुझ को सू-ए-मज़ार-ए-शकर गंज ले चला...
बुराई या भलाई गो है अपने वास्ते लेकिन किसी को क्यूँ कहें हम बद कि बद-गोई से क्या हासिल...
जिगर के टुकड़े हुए जल के दिल कबाब हुआ ये इश्क़ जान को मेरे कोई अज़ाब हुआ किया जो क़त्ल मुझे तुम ने ख़ूब काम किया कि मैं अज़ाब से छूटा तुम्हें सवाब हुआ...
हम अपना इश्क़ चमकाएँ तुम अपना हुस्न चमकाओ कि हैराँ देख कर आलम हमें भी हो तुम्हें भी हो...
या मुझे अफ़सर-ए-शाहाना बनाया होता या मिरा ताज गदायाना बनाया होता अपना दीवाना बनाया मुझे होता तू ने क्यूँ ख़िरद-मंद बनाया न बनाया होता...
रुख़ जो ज़ेर-ए-सुंबल-ए-पुर-पेच-ओ-ताब आ जाएगा फिर के बुर्ज-ए-सुंबले में आफ़्ताब आ जाएगा तेरा एहसाँ होगा क़ासिद गर शिताब आ जाएगा सब्र मुझ को देख कर ख़त का जवाब आ जाएगा...
होते होते चश्म से आज अश्क-बारी रह गई आबरू बारे तिरी अब्र-ए-बहारी रह गई आते आते इस तरफ़ उन की सवारी रह गई दिल की दिल में आरज़ू-ए-जाँ-निसारी रह गई...
हवा में फिरते हो क्या हिर्स और हवा के लिए ग़ुरूर छोड़ दो ऐ ग़ाफ़िलो ख़ुदा के लिए गिरा दिया है हमें किस ने चाह-ए-उल्फ़त में हम आप डूबे किसी अपने आश्ना के लिए...
देख दिल को मिरे ओ काफ़िर-ए-बे-पीर न तोड़ घर है अल्लाह का ये इस की तो तामीर न तोड़...
हिज्र के हाथ से अब ख़ाक पड़े जीने में दर्द इक और उठा आह नया सीने में ख़ून-ए-दिल पीने से जो कुछ है हलावत हम को ये मज़ा और किसी को नहीं मय पीने में...
वाक़िफ़ हैं हम कि हज़रत-ए-ग़म ऐसे शख़्स हैं और फिर हम उन के यार हैं हम ऐसे शख़्स हैं दीवाने तेरे दश्त में रक्खेंगे जब क़दम मजनूँ भी लेगा उन के क़दम ऐसे शख़्स हैं...
बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी जैसी अब है तिरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी ले गया छीन के कौन आज तिरा सब्र ओ क़रार बे-क़रारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थी...
बे-ख़ुदी में ले लिया बोसा ख़ता कीजे मुआफ़ ये दिल-ए-बेताब की सारी ख़ता थी मैं न था...
तमन्ना है ये दिल में जब तलक है दम में दम अपने 'ज़फ़र' मुँह से हमारे नाम उस का दम-ब-दम निकले...
देख दिल को मिरे ओ काफ़िर-ए-बे-पीर न तोड़ घर है अल्लाह का ये इस की तो तामीर न तोड़ ग़ुल सदा वादी-ए-वहशत में रखूँगा बरपा ऐ जुनूँ देख मिरे पाँव की ज़ंजीर न तोड़...
क्यूँकर न ख़ाकसार रहें अहल-ए-कीं से दूर देखो ज़मीं फ़लक से फ़लक है ज़मीं से दूर परवाना वस्ल-ए-शम्अ पे देता है अपनी जाँ क्यूँकर रहे दिल उस के रुख़-ए-आतिशीं से दूर...