हिज्र के हाथ से अब ख़ाक पड़े जीने में
हिज्र के हाथ से अब ख़ाक पड़े जीने में दर्द इक और उठा आह नया सीने में ख़ून-ए-दिल पीने से जो कुछ है हलावत हम को ये मज़ा और किसी को नहीं मय पीने में दिल को किस शक्ल से अपने न मुसफ़्फ़ा रक्खूँ जल्वागर यार की सूरत है इस आईने में अश्क ओ लख़्त-ए-जिगर आँखों में नहीं हैं मेरे हैं भरे लाल ओ गुहर इश्क़ के गंजीने में शक्ल-ए-आईना 'ज़फ़र' से तो न रख दिल में ख़याल कुछ मज़ा भी है भला जान मिरी लेने में

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