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टुक हिर्स-ओ-हवा को छोड़ मियाँ मत देस बिदेस फिरे मारा क़ज़्ज़ाक़ अजल का लूटे है दिन रात बजा कर नक़्क़ारा क्या बधिया भैंसा बैल शुतुर क्या गू में पल्ला सर-भारा क्या गेहूँ चाँवल मोठ मटर क्या आग धुआँ और अँगारा...

तर रखियो सदा या-रब तू इस मिज़ा-ए-तर को हम इत्र लगाते हैं गर्मी में इसी ख़स का...

अश्कों के तसलसुल ने छुपाया तन-ए-उर्यां ये आब-ए-रवाँ का है नया पैरहन अपना...

उसी की ज़ात को है दाइमन सबात-ओ-क़याम क़ादीर ओ हय ओ करीम ओ मुहैमिन ओ मिनआम बुरूज बारा में ला कर रखी वो बारीकी कि जिस को पहुँचे न फ़िक्रत न दानिश ओ औहाम...

निकले हो किस बहार से तुम ज़र्द-पोश हो जिस की नवेद पहुँची है रंग-ए-बसंत को दी बर में अब लिबास-ए-बसंती को जैसे जा ऐसे ही तुम हमारे भी सीना से आ लगो...

मह है अगर जू-ए-शीर तुम भी ज़री-पोश हो दूध छटी का उसे याद दिलाने चलो आईना-ए-माह को लाल-ए-लब अपने दिखा चश्मा-ए-काफ़ूर में आग लगाने चलो...

आरज़ू ख़ूब है मौक़ा से अगर हो वर्ना अपने मक़्सूद को कम पहुँचे हैं बिसयार-तलब...

इस बेवफ़ा ने हम को अगर अपने इश्क़ में रुस्वा किया ख़राब किया फिर किसी को क्या...

जो आवे मुँह पे तिरे माहताब है क्या चीज़ ग़रज़ ये माह तो क्या आफ़्ताब है क्या चीज़ ये पैरहन में है इस गोरे गोरे तन की झलक कि जिस के सामने मोती की आब है क्या चीज़...

ये जवाहर ख़ाना-ए-दुनिया जो है बा-आब-ओ-ताब अहल-ए-सूरत का है दरिया अहल-ए-मअ'नी का सराब...

रखता है सदा होंट को जूँ गुल की कली चुप वो ग़ुंचा-दहन आह ये सीखा है भली चुप सोता है तो लेता हूँ मैं यूँ चोरी से बोसा जूँ मुँह में खिला दे कोई मिस्री की डली चुप...

जो तुम ने पूछा तो हर्फ़-ए-उल्फ़त बर आया साहिब हमारे लब से सो इस को सुन कर हुए ख़फ़ा तुम न कहते थे हम इसी सबब से न देते हम तो कभी दिल अपना न होते हरगिज़ ख़राब-ओ-रुसवा वले करें क्या कि तुम ने हम को दिखाईं झुमकीं अजब ही छब से...

ख़फ़ा देखा है उस को ख़्वाब में दिल सख़्त मुज़्तर है खिला दे देखिए क्या क्या गुल-ए-ताबीर-ए-ख़्वाब अपना...

दिल की बेताबी नहीं ठहरने देती है मुझे दिन कहीं रात कहीं सुब्ह कहीं शाम कहीं...

दुनिया है इक निगार-ए-फ़रीबंदा जल्वा-गर उल्फ़त में इस की कुछ नहीं जुज़-कुल्फ़त-ओ-ज़रर होता है आख़िर इस के गिरफ़्तार का ये हाल जैसे मगस के शहद में भर जावें बाल-ओ-पर...

इंकार हम से ग़ैर से इक़रार बस जी बस देखे तुम्हारे हम ने ये अतवार बस जी बस इतना हूँ जा-ए-रहम जो करता है वो जफ़ा तो उस से रो के कहते हैं अग़्यार बस जी बस...

बे-ज़री फ़ाक़ा-कशी मुफ़्लिसी बे-सामानी हम फ़क़ीरों के भी हाँ कुछ नहीं और सब कुछ है...

कोई तो पगड़ी बदलता है औरों से लेकिन मियाँ 'नज़ीर' हम अब तुम से तन बदलते हैं...

बंदे के क़लम हाथ में होता तो ग़ज़ब था सद शुक्र कि है कातिब-ए-तक़दीर कोई और...

ये तन जो है हर इक के उतारे का झोंपड़ा इस से है अब भी सब के सहारे का झोंपड़ा इस से है बादशह के नज़ारे का झोंपड़ा इस में ही है फ़क़ीर बिचारे का झोंपड़ा...

कब ग़ैर ने ये सितम सहे चुप ऐसे थे हमें जो हो रहे चुप शिकवा तो करें हम उस से अक्सर पर क्या करें दिल ही जब कहे चुप...

किस के लिए कीजिए जामा-ए-दीबा-तलब दिल तो करे है मुदाम दामन-ए-सहरा-तलब काम रवा हों भला उस से हम अब किस तरह उस को तमन्ना नहीं हम हैं तमन्ना-तलब...

बैठे हैं अब तो हम भी बोलोगे तुम न जब तक देखें तो आप हम से ना-ख़ुश रहेंगे कब तक इक़रार था सहर का ऐसा हुआ सबब क्या जो शाम होने आई और वो न आया अब तक...

सनम के कूचे में छुप के जाना अगरचे यूँ है ख़याल दिल का प वो तो जाते ही ताड़ लेगा फिर आना होगा मुहाल दिल का गुहर ने अश्कों के याँ निकल कर झमक दिखाई जो अपनी हर दम तो हम ने जाना कि मोतियों से भरा है पहलू में थाल दिल का...

देखे न मुझे क्यूँकर अज़-चश्म-ए-हिक़ारत-ऊ वो सर्व-ए-जवाँ यारो मन-फ़ाख़्ता-ए-पीरम...

आ धमके ऐश ओ तरब क्या क्या जब हुस्न दिखाया होली ने हर आन ख़ुशी की धूम हुई यूँ लुत्फ़ जताया होली ने हर ख़ातिर को ख़ुरसंद किया हर दिल को लुभाया होली ने दफ़ रंगीं नक़्श सुनहरी का जिस वक़्त बजाया होली ने...

देख उसे रंग-ए-बहार ओ सर्व ओ गुल और जूएबार इक उड़ा इक गिर गया इक जल गया इक बह गया...

मानी ने जो देखा तिरी तस्वीर का नक़्शा सब भूल गया अपनी वो तहरीर का नक़्शा उस अबरू-ए-ख़मदार की सूरत से अयाँ है ख़ंजर की शबाहत दम-ए-शमशीर का नक़्शा...

कहा था हम ने तुझे तो ऐ दिल कि चाह की मय को तू न पीना जो इस को पी कर तू ऐसा बहका कि हम को मुश्किल हुआ है जीना जो आँखें चंचल की देखें हम ने तो नोक-ए-मिज़्गाँ ने दिल को छेदा निगह ने होश-ओ-ख़िरद को लूटा अदा ने सब्र-ओ-क़रार छीना...

क्या अदा किया नाज़ है क्या आन है याँ परी का हुस्न भी हैरान है हूर भी देखे तो हो जावे फ़िदा आज इस आलम का वो इंसान है...

यूँ तो हम कुछ न थे पर मिस्ल-ए-अनार-ओ-महताब जब हमें आग लगाई तो तमाशा निकला...

अब तो ज़रा सा गाँव भी बेटी न दे उसे लगता था वर्ना चीन का दामाद आगरा...

हम में भी और उन्हों में पहले जो यारियाँ थीं दोनों दिलों में क्या क्या उम्मीदवारियाँ थीं वो मुंतज़िर कि आवें हम पुर-तपिश कि जावें इस ढब की हर-दो-जानिब बे-इख़्तियार थीं...

कल बोसा-ए-पा हम ने लिया था सो न आया शायद कि वो बोसा ही हुआ आबला-ए-पा...

बुतों की मज्लिस में शब को मह-रू जो और टुक भी क़याम करता कुनिश्त वीराँ सनम को बंदा बरहमनो को ग़ुलाम करता ख़राब ख़स्ता समझ के तू ने पियारे मुझ को अबस निकाला जो रहने देता तो गुल-रुख़ों में क़सम है मेरी मैं नाम करता...

इश्क़ का मारा न सहरा ही में कुछ चौपट पड़ा है जहाँ उस का अमल वो शहर भी है पट पड़ा आशिक़ों के क़त्ल को क्या तेज़ है अबरू की तेग़ टुक उधर जुम्बिश हुई और सर इधर से कट पड़ा...

जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की ख़ुम, शीशे, जाम, झलकते हों तब देख बहारें होली की...

तिरे मरीज़ को ऐ जाँ शिफ़ा से क्या मतलब वो ख़ुश है दर्द में उस को दवा से क्या मतलब फ़क़त जो ज़ात के हैं दिल से चाहने वाले उन्हें करिश्मा-ओ-नाज़-ओ-अदा से क्या मतलब ...

चितवन की कहूँ कि इशारात की गर्मी है नाम-ए-ख़ुदा उस में हर एक बात की गर्मी रोने से मिरे उस को अरक़ आ गया यारो सच है कि बुरी होती है बरसात की गर्मी...

हर इक मकाँ में जला फिर दिया दिवाली का हर इक तरफ़ को उजाला हुआ दिवाली का सभी के दिल में समाँ भा गया दिवाली का किसी के दिल को मज़ा ख़ुश लगा दीवाली का...