दुनिया है इक निगार-ए-फ़रीबंदा जल्वा-गर
उल्फ़त में इस की कुछ नहीं जुज़-कुल्फ़त-ओ-ज़रर
होता है आख़िर इस के गिरफ़्तार का ये हाल
जैसे मगस के शहद में भर जावें बाल-ओ-पर
सेहर-ओ-फ़ुसूँ वो रखती है बहर-ए-फ़रेब-ए-दिल
हैराँ हो सेहर-ए-सामरी भी जिस को देख कर
लेने को नक़्द-ए-उम्र के शीरीं है मिस्ल-ए-क़ंद
जब ले चुके तो होती है हंज़ल से तल्ख़-तर
जो उस से दिल लगाते हैं आख़िर हो मुन्फ़इल
मलते हैं अपने दस्त-ए-तअस्सुफ़ ब-यक दिगर
तू भी जो उस के पास लगावेगा दिल तो यार
उस नख़्ल से मिलेगा तुझे भी यही समर
मैं तुझ को उस के रब्त से करता न मनअ आह
लेकिन करूँ मैं क्या तुझे दरपेश है सफ़र
तू इस मसल को सोच ज़रा गर सफ़र-गज़ीं
करता है क़त्अ राह को बाँधे हुए कमर
गर दरमियान-ए-रह कोई मिल जाए बाग़ उसे
तू चलते चलते देखता जाता है इक नज़र
बस इस निगार-ख़ाने को तू भी इसी नमत
सैर-ए-मुसाफ़िराना कर और इस से दर-गुज़र
इस हर्फ़ को 'नज़ीर' के यूँ दिल में दे मकाँ
करता है जैसे नक़्श नगीं के जिगर में घर