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बराबर से बच कर गुज़र जाने वाले ये नाले नहीं बे-असर जाने वाले नहीं जानते कुछ कि जाना कहाँ है चले जा रहे हैं मगर जाने वाले...

इस तरह ख़ुश हूँ किसी के वादा-ए-फ़र्दा पे मैं दर-हक़ीक़त जैसे मुझ को ए'तिबार आ ही गया...

गरचे अहल-ए-शराब हैं हम लोग ये न समझो ख़राब हैं हम लोग...

अल्लाह अगर तौफ़ीक़ न दे इंसान के बस का काम नहीं फ़ैज़ान-ए-मोहब्बत आम सही इरफ़ान-ए-मोहब्बत आम नहीं...

कभी उन मद-भरी आँखों से पिया था इक जाम आज तक होश नहीं होश नहीं होश नहीं...

आदमी के पास सब कुछ है मगर एक तन्हा आदमिय्यत ही नहीं...

मोहब्बत में हम तो जिए हैं जिएँगे वो होंगे कोई और मर जाने वाले...

दिल गया रौनक़-ए-हयात गई ग़म गया सारी काएनात गई...

किसी सूरत नुमूद-ए-सोज़-ए-पिन्हानी नहीं जाती बुझा जाता है दिल चेहरे की ताबानी नहीं जाती नहीं जाती कहाँ तक फ़िक्र-ए-इंसानी नहीं जाती मगर अपनी हक़ीक़त आप पहचानी नहीं जाती...

तेरी बातों से आज तो वाइज़ वो जो थी ख़्वाहिश-ए-नजात गई...

सबा ये उन से हमारा पयाम कह देना गए हो जब से यहाँ सुब्ह-ओ-शाम ही न हुई...

वो थे न मुझ से दूर न मैं उन से दूर था आता न था नज़र तो नज़र का क़ुसूर था...

मोहब्बत में ये क्या मक़ाम आ रहे हैं कि मंज़िल पे हैं और चले जा रहे हैं...

हाए ये हुस्न-ए-तसव्वुर का फ़रेब-ए-रंग-ओ-बू मैं ये समझा जैसे वो जान-ए-बहार आ ही गया...

आतिश-ए-इश्क़ वो जहन्नम है जिस में फ़िरदौस के नज़ारे हैं...

आँखों का था क़ुसूर न दिल का क़ुसूर था आया जो मेरे सामने मेरा ग़ुरूर था...

इश्क़ को बे-नक़ाब होना था आप अपना जवाब होना था मस्त-ए-जाम-ए-शराब होना था बे-ख़ुद-ए-इज़्तिराब होना था...

तूल-ए-ग़म-ए-हयात से घबरा न ऐ 'जिगर' ऐसी भी कोई शाम है जिस की सहर न हो...

कुछ इस अदा से आज वो पहलू-नशीं रहे जब तक हमारे पास रहे हम नहीं रहे ईमान-ओ-कुफ़्र और न दुनिया-ओ-दीं रहे ऐ इश्क़-ए-शाद-बाश कि तन्हा हमीं रहे...

मिरी हस्ती है मिरी तर्ज़-ए-तमन्ना ऐ दोस्त ख़ुद मैं फ़रियाद हूँ मेरी कोई फ़रियाद नहीं...

काम आख़िर जज़्बा-ए-बे-इख़्तियार आ ही गया दिल कुछ इस सूरत से तड़पा उन को प्यार आ ही गया जब निगाहें उठ गईं अल्लाह-री मेराज-ए-शौक़ देखता क्या हूँ वो जान-ए-इंतिज़ार आ ही गया...

आई जब उन की याद तो आती चली गई हर नक़्श-ए-मा-सिवा को मिटाती चली गई हर मंज़र-ए-जमाल दिखाती चली गई जैसे उन्हीं को सामने लाती चली गई...

कसरत में भी वहदत का तमाशा नज़र आया जिस रंग में देखा तुझे यकता नज़र आया जब उस रुख़-ए-पुर-नूर का जल्वा नज़र आया काबा नज़र आया न कलीसा नज़र आया...

या वो थे ख़फ़ा हम से या हम हैं ख़फ़ा उन से कल उन का ज़माना था आज अपना ज़माना है...

राज़ जो सीना-ए-फ़ितरत में निहाँ होता है सब से पहले दिल-ए-शाइर पे अयाँ होता है सख़्त ख़ूँ-रेज़ जब आशोब-ए-जहाँ होता है नहीं मालूम ये इंसान कहाँ होता है...

सदाक़त हो तो दिल सीनों से खिंचने लगते हैं वाइ'ज़ हक़ीक़त ख़ुद को मनवा लेती है मानी नहीं जाती...

उसी को कहते हैं जन्नत उसी को दोज़ख़ भी वो ज़िंदगी जो हसीनों के दरमियाँ गुज़रे...

बन जाऊँ न बेगाना-ए-आदाब-ए-मोहब्बत इतना न क़रीब आओ मुनासिब तो यही है...

तुझी से इब्तिदा है तू ही इक दिन इंतिहा होगा सदा-ए-साज़ होगी और न साज़-ए-बे-सदा होगा हमें मालूम है हम से सुनो महशर में क्या होगा सब उस को देखते होंगे वो हम को देखता होगा...

क्या बताऊँ किस क़दर ज़ंजीर-ए-पा साबित हुए चंद तिनके जिन को अपना आशियाँ समझा था में...

किया तअज्जुब कि मिरी रूह-ए-रवाँ तक पहुँचे पहले कोई मिरे नग़्मों की ज़बाँ तक पहुँचे जब हर इक शोरिश-ए-ग़म ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ तक पहुँचे फिर ख़ुदा जाने ये हंगामा कहाँ तक पहुँचे...

न देखा रुख़ बे-नक़ाब-ए-मोहब्बत मोहब्बत है शायद हिजाब-ए-मोहब्बत बरसता है कैफ़-ए-शबाब-ए-मोहब्बत हर आँसू है जाम-ए-शराब-ए-मोहब्बत...

मोहब्बत सुल्ह भी पैकार भी है ये शाख़-ए-गुल भी है तलवार भी है...

हमीं जब न होंगे तो क्या रंग-ए-महफ़िल किसे देख कर आप शरमाइएगा...

सब को हम भूल गए जोश-ए-जुनूँ में लेकिन इक तिरी याद थी ऐसी जो भुलाई न गई...

मोहब्बत सुल्ह भी पैकार भी है ये शाख़-ए-गुल भी है तलवार भी है तबीअत इस तरफ़ ख़ुद्दार भी है उधर नाज़ुक मिज़ाज-ए-यार भी है...

आँखों में नमी सी है चुप चुप से वो बैठे हैं नाज़ुक सी निगाहों में नाज़ुक सा फ़साना है...

हमें मालूम है हम से सुनो महशर में क्या होगा सब उस को देखते होंगे वो हम को देखता होगा...

जो तूफ़ानों में पलते जा रहे हैं वही दुनिया बदलते जा रहे हैं निखरता आ रहा है रंग-ए-गुलशन ख़स ओ ख़ाशाक जलते जा रहे हैं...

वही है ज़िंदगी लेकिन 'जिगर' ये हाल है अपना कि जैसे ज़िंदगी से ज़िंदगी कम होती जाती है...