आई जब उन की याद तो आती चली गई
हर नक़्श-ए-मा-सिवा को मिटाती चली गई
हर मंज़र-ए-जमाल दिखाती चली गई
जैसे उन्हीं को सामने लाती चली गई
हर वाक़िआ क़रीब-तर आता चला गया
हर शय हसीन-तर नज़र आती चली गई
वीराना-ए-हयात के एक एक गोशे में
जोगन कोई सितार बजाती चली गई
दिल फुंक रहा था आतिश-ए-ज़ब्त-ए-फ़िराक़ से
दीपक को मय-गुसार बनाती चली गई
बे-हर्फ़ ओ बे-हिकायत ओ बे-साज़ ओ बे-सदा
रग रग में नग़्मा बन के समाती चली गई
जितना ही कुछ सुकून सा आता चला गया
उतना ही बे-क़रार बनाती चली गई
कैफ़िय्यतों को होश सा आता चला गया
बे-कैफ़ियों को नींद सी आती चली गई
क्या क्या न हुस्न-ए-यार से शिकवे थे इश्क़ को
क्या क्या न शर्मसार बनाती चली गई
तफ़रीक़-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ का झगड़ा नहीं रहा
तमईज़-ए-क़ुर्ब-ओ-बोद मिटाती चली गई
मैं तिश्ना-काम-ए-शौक़ था पीता चला गया
वो मस्त अँखड़ियों से पिलाती चली गई
इक हुस्न-ए-बे-जिहत की फ़ज़ा-ए-बसीत में
उड़ती गई मुझे भी उड़ाती चली गई
फिर मैं हूँ और इश्क़ की बेताबियाँ 'जिगर'
अच्छा हुआ वो नींद की माती चली गई