Page 3 of 4

कुछ न पूछो 'फ़िराक़' अहद-ए-शबाब रात है नींद है कहानी है...

किसी की बज़्म-ए-तरब में हयात बटती थी उमीद-वारों में कल मौत भी नज़र आई...

कोई समझे तो एक बात कहूँ इश्क़ तौफ़ीक़ है गुनाह नहीं...

अपने ग़म का मुझे कहाँ ग़म है ऐ कि तेरी ख़ुशी मुक़द्दम है आग में जो पड़ा वो आग हुआ हुस्न-ए-सोज़-ए-निहाँ मुजस्सम है...

दीदार में इक-तरफ़ा दीदार नज़र आया हर बार छुपा कोई हर बार नज़र आया छालों को बयाबाँ भी गुलज़ार नज़र आया जब छेड़ पर आमादा हर ख़ार नज़र आया...

जो उलझी थी कभी आदम के हाथों वो गुत्थी आज तक सुलझा रहा हूँ...

अब अक्सर चुप चुप से रहें हैं यूँही कभू लब खोलें हैं पहले 'फ़िराक़' को देखा होता अब तो बहुत कम बोलें हैं दिन में हम को देखने वालो अपने अपने हैं औक़ात जाओ न तुम इन ख़ुश्क आँखों पर हम रातों को रो लें हैं...

मैं हूँ दिल है तन्हाई है तुम भी होते अच्छा होता...

तूर था काबा था दिल था जल्वा-ज़ार-ए-यार था इश्क़ सब कुछ था मगर फिर आलम-ए-असरार था नश्शा-ए-सद-जाम कैफ़-ए-इंतिज़ार-ए-यार था हिज्र में ठहरा हुआ दिल साग़र-ए-सरशार था...

जहाँ में थी बस इक अफ़्वाह तेरे जल्वों की चराग़-ए-दैर-ओ-हरम झिलमिलाए हैं क्या क्या...

समझता हूँ कि तू मुझ से जुदा है शब-ए-फ़ुर्क़त मुझे क्या हो गया है तिरा ग़म क्या है बस ये जानता हूँ कि मेरी ज़िंदगी मुझ से ख़फ़ा है...

आई है कुछ न पूछ क़यामत कहाँ कहाँ उफ़ ले गई है मुझ को मोहब्बत कहाँ कहाँ बेताबी-ओ-सुकूँ की हुईं मंज़िलें तमाम बहलाएँ तुझ से छुट के तबीअ'त कहाँ कहाँ...

नर्म फ़ज़ा की करवटें दिल को दुखा के रह गईं ठंडी हवाएँ भी तिरी याद दिला के रह गईं शाम भी थी धुआँ धुआँ हुस्न भी था उदास उदास दिल को कई कहानियाँ याद सी आ के रह गईं...

पाल ले इक रोग नादाँ ज़िंदगी के वास्ते पाल ले इक रोग सिर्फ़ सेहत के सहारे...

कोई आया न आएगा लेकिन क्या करें गर न इंतिज़ार करें...

किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी ये हुस्न ओ इश्क़ तो धोका है सब मगर फिर भी...

किस लिए कम नहीं है दर्द-ए-फ़िराक़ अब तो वो ध्यान से उतर भी गए...

ख़राब हो के भी सोचा किए तिरे महजूर यही कि तेरी नज़र है तिरी नज़र फिर भी...

ख़ुद मुझ को भी ता-देर ख़बर हो नहीं पाई आज आई तिरी याद इस आहिस्ता-रवी से...

कौन ये ले रहा है अंगड़ाई आसमानों को नींद आती है...

कम से कम मौत से ऐसी मुझे उम्मीद नहीं ज़िंदगी तू ने तो धोके पे दिया है धोका...

हम से क्या हो सका मोहब्बत में ख़ैर तुम ने तो बेवफ़ाई की...

ज़रा विसाल के बाद आइने तो देख ऐ दोस्त तिरे जमाल की दोशीज़गी निखर आई...

ज़िंदगी क्या है आज इसे ऐ दोस्त सोच लें और उदास हो जाएँ...

ज़िंदगी दर्द की कहानी है चश्म-ए-अंजुम में भी तो पानी है बे-नियाज़ाना सुन लिया ग़म-ए-दिल मेहरबानी है मेहरबानी है...

ज़ौक़-ए-नज़्ज़ारा उसी का है जहाँ में तुझ को देख कर भी जो लिए हसरत-ए-दीदार चला...

ज़ब्त कीजे तो दिल है अँगारा और अगर रोइए तो पानी है...

वक़्त-ए-पीरी दोस्तों की बे-रुख़ी का क्या गिला बच के चलते हैं सभी गिरती हुई दीवार से...

ये माना ज़िंदगी है चार दिन की बहुत होते हैं यारो चार दिन भी...

ग़म तिरा जल्वा-गह-ए-कौन-ओ-मकाँ है कि जो था या'नी इंसान वही शो'ला-ब-जाँ है कि जो था फिर वही रंग-ए-तकल्लुम निगह-ए-नाज़ में है वही अंदाज़ वही हुस्न-ए-बयाँ है कि जो था...

सुना तो है कि कभी बे-नियाज़-ए-ग़म थी हयात दिलाई याद निगाहों ने तेरी कब की बात ज़माँ मकाँ है फ़क़त मद्द-ओ-जज़्र-ए-जोश-ए-हयात बस एक मौज की हैं झलकियाँ क़रार-ओ-सबात...

खो दिया तुम को तो हम पूछते फिरते हैं यही जिस की तक़दीर बिगड़ जाए वो करता क्या है...

मुझ को मारा है हर इक दर्द ओ दवा से पहले दी सज़ा इश्क़ ने हर जुर्म-ओ-ख़ता से पहले आतिश-ए-इश्क़ भड़कती है हवा से पहले होंट जुलते हैं मोहब्बत में दुआ से पहले...

रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गए वाह-री ग़फ़लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम...

दौर-ए-आग़ाज़-ए-जफ़ा दिल का सहारा निकला हौसला कुछ न हमारा न तुम्हारा निकला तेरा नाम आते ही सकते का था आलम मुझ पर जाने किस तरह ये मज़कूर दोबारा निकला...

हाथ आए तो वही दामन-ए-जानाँ हो जाए छूट जाए तो वही अपना गरेबाँ हो जाए इश्क़ अब भी है वो महरम-ए-बे-गाना-नुमा हुस्न यूँ लाख छुपे लाख नुमायाँ हो जाए...

कुछ न कुछ इश्क़ की तासीर का इक़रार तो है उस का इल्ज़ाम-ए-तग़ाफ़ुल पे कुछ इंकार तो है हर फ़रेब-ए-ग़म-ए-दुनिया से ख़बर-दार तो है तेरा दीवाना किसी काम में हुश्यार तो है...

दयार-ए-हिन्द था गहवारा याद है हमदम बहुत ज़माना हुआ किस के किस के बचपन का इसी ज़मीन पे खेला है 'राम' का बचपन इसी ज़मीन पे उन नन्हे नन्हे हाथों ने...

ये ज़िंदगी के कड़े कोस याद आते हैं तिरी निगाह-ए-करम का घना घना साया...

तुम मुख़ातिब भी हो क़रीब भी हो तुम को देखें कि तुम से बात करें...