जब यास हुई तो आहों ने सीने से निकलना छोड़ दिया अब ख़ुश्क-मिज़ाज आँखें भी हुईं दिल ने भी मचलना छोड़ दिया नावक-फ़गनी से ज़ालिम की जंगल में है इक सन्नाटा सा मुर्ग़ान-ए-ख़ुश-अलहाँ हो गए चुप आहू ने उछलना छोड़ दिया...
मेरी ये बेचैनियाँ और उन का कहना नाज़ से हँस के तुम से बोल तो लेते हैं और हम क्या करें...
देख आए हम भी दो दिन रह के देहली की बहार हुक्म-ए-हाकिम से हुआ था इजतिमा-ए-इंतिशार आदमी और जानवर और घर मुज़य्यन और मशीन फूल और सब्ज़ा चमक और रौशनी रेल और तार...
ख़ुदा-हाफ़िज़ मुसलामानों का 'अकबर' मुझे तो उन की ख़ुश-हाली से है यास ये आशिक़ शाहिद-ए-मक़्सूद के हैं न जाएँगे व-लेकिन सई के पास...
ज़रूरी चीज़ है इक तजरबा भी ज़िंदगानी में तुझे ये डिग्रियाँ बूढ़ों का हम-सिन कर नहीं सकतीं...
समझ में साफ़ आ जाए फ़साहत इस को कहते हैं असर हो सुनने वाले पर बलाग़त इस को कहते हैं...
लगावट की अदा से उन का कहना पान हाज़िर है क़यामत है सितम है दिल फ़िदा है जान हाज़िर है...
जल्वा अयाँ है क़ुदरत-ए-परवरदिगार का क्या दिल-कुशा ये सीन है फ़स्ल-ए-बहार का नाज़ाँ हैं जोश-ए-हुस्न पे गुल-हा-ए-दिल-फ़रेब जोबन दिखा रहा है ये आलम उभार का...
आह जो दिल से निकाली जाएगी क्या समझते हो कि ख़ाली जाएगी इस नज़ाकत पर ये शमशीर-ए-जफ़ा आप से क्यूँकर सँभाली जाएगी...
तुम्हारे वाज़ में तासीर तो है हज़रत-ए-वाइज़ असर लेकिन निगाह-ए-नाज़ का भी कम नहीं होता...
अक़्ल में जो घिर गया ला-इंतिहा क्यूँकर हुआ जो समा में आ गया फिर वो ख़ुदा क्यूँकर हुआ...
रक़ीबों ने रपट लिखवाई है जा जा के थाने में कि 'अकबर' नाम लेता है ख़ुदा का इस ज़माने में...
दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ बाज़ार से गुज़रा हूँ ख़रीदार नहीं हूँ ज़िंदा हूँ मगर ज़ीस्त की लज़्ज़त नहीं बाक़ी हर-चंद कि हूँ होश में हुश्यार नहीं हूँ...
इस गुलिस्ताँ में बहुत कलियाँ मुझे तड़पा गईं क्यूँ लगी थीं शाख़ में क्यूँ बे-खिले मुरझा गईं...
क्या वो ख़्वाहिश कि जिसे दिल भी समझता हो हक़ीर आरज़ू वो है जो सीने में रहे नाज़ के साथ...
बुतों के पहले बंदे थे मिसों के अब हुए ख़ादिम हमें हर अहद में मुश्किल रहा है बा-ख़ुदा होना...
उन्हें भी जोश-ए-उल्फ़त हो तो लुत्फ़ उट्ठे मोहब्बत का हमीं दिन-रात अगर तड़पे तो फिर इस में मज़ा क्या है...
इक बोसा दीजिए मिरा ईमान लीजिए गो बुत हैं आप बहर-ए-ख़ुदा मान लीजिए दिल ले के कहते हैं तिरी ख़ातिर से ले लिया उल्टा मुझी पे रखते हैं एहसान लीजिए...
कुछ तर्ज़-ए-सितम भी है कुछ अंदाज़-ए-वफ़ा भी खुलता नहीं हाल उन की तबीअत का ज़रा भी...
एक मिस सीमीं बदन से कर लिया लंदन में अक़्द इस ख़ता पर सुन रहा हूँ ताना-हा-ए-दिल-ख़राश कोई कहता है कि बस उस ने बिगाड़ी नस्ल-ए-क़ौम कोई कहता है कि ये है बद-ख़िसाल-ओ-बद-मआश...
हुए इस क़दर मोहज़्ज़ब कभी घर का मुँह न देखा कटी उम्र होटलों में मरे अस्पताल जा कर...
नाज़ क्या इस पे जो बदला है ज़माने ने तुम्हें मर्द हैं वो जो ज़माने को बदल देते हैं...