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रात गुज़रे है मुझे नज़अ में रोते रोते आँखें फिर जाएँगी अब सुब्ह के होते होते खोल कर आँख उड़ा दीद जहाँ का ग़ाफ़िल ख़्वाब हो जाएगा फिर जागना सोते सोते...

क्या लड़के दिल्ली के हैं अय्यार और नट-खट दिल लें हैं यूँ कि हरगिज़ होती नहीं है आहट हम आशिक़ों को मरते क्या देर कुछ लगे है चट जिन ने दिल पे खाई वो हो गया है चट-पट...

सख़्त काफ़िर था जिन ने पहले 'मीर' मज़हब-ए-इश्क़ इख़्तियार किया...

ग़म रहा जब तक कि दम में दम रहा दिल के जाने का निहायत ग़म रहा हुस्न था तेरा बहुत आलम-फ़रेब ख़त के आने पर भी इक आलम रहा...

फिरते हैं 'मीर' ख़्वार कोई पूछता नहीं इस आशिक़ी में इज़्ज़त-ए-सादात भी गई...

जो इस शोर से 'मीर' रोता रहेगा तो हम-साया काहे को सोता रहेगा...

काबे में जाँ-ब-लब थे हम दूरी-ए-बुताँ से आए हैं फिर के यारो अब के ख़ुदा के हाँ से तस्वीर के से ताइर ख़ामोश रहते हैं हम जी कुछ उचट गया है अब नाला ओ फ़ुग़ाँ से...

पढ़ते फिरेंगे गलियों में इन रेख़्तों को लोग मुद्दत रहेंगी याद ये बातें हमारीयाँ...

इश्क़ इक 'मीर' भारी पत्थर है कब ये तुझ ना-तवाँ से उठता है...

जो इस शोर से 'मीर' रोता रहेगा तो हम-साया काहे को सोता रहेगा मैं वो रोने वाला जहाँ से चला हूँ जिसे अब्र हर साल रोता रहेगा...

इश्क़ क्या क्या आफ़तें लाता रहा आख़िर अब दूरी में जी जाता रहा मेहर ओ मह गुल फूल सब थे पर हमें चेहरई चेहरा ही वो भाता रहा...

हम आप ही को अपना मक़्सूद जानते हैं अपने सिवाए किस को मौजूद जानते हैं...

आह जिस वक़्त सर उठाती है अर्श पर बर्छियाँ चलाती है नाज़-बरदार-ए-लब है जाँ जब से तेरे ख़त की ख़बर को पाती है...

बहुत कुछ कहा है करो 'मीर' बस कि अल्लाह बस और बाक़ी हवस...

सिरहाने 'मीर' के आहिस्ता बोलो अभी टुक रोते रोते सो गया है...

बारे दुनिया में रहो ग़म-ज़दा या शाद रहो ऐसा कुछ कर के चलो याँ कि बहुत याद रहो...

इश्क़ हमारे ख़याल पड़ा है ख़्वाब गई आराम गया जी का जाना ठहर रहा है सुब्ह गया या शाम गया इश्क़ किया सो दीन गया ईमान गया इस्लाम गया दिल ने ऐसा काम किया कुछ जिस से मैं नाकाम गया...

इश्क़ का घर है 'मीर' से आबाद ऐसे फिर ख़ानमाँ-ख़राब कहाँ...

मुँह तका ही करे है जिस तिस का हैरती है ये आईना किस का...

वस्ल में रंग उड़ गया मेरा क्या जुदाई को मुँह दिखाऊँगा...

मिरे सलीक़े से मेरी निभी मोहब्बत में तमाम उम्र मैं नाकामियों से काम लिया...

ख़राब रहते थे मस्जिद के आगे मय-ख़ाने निगाह-ए-मस्त ने साक़ी की इंतिक़ाम लिया...

सारे आलम पर हूँ मैं छाया हुआ मुस्तनद है मेरा फ़रमाया हुआ...

ख़ातिर करे है जमा वो हर बार एक तरह करता है चर्ख़ मुझ से नए यार एक तरह मैं और क़ैस ओ कोहकन अब जो ज़बाँ पे हैं मारे गए हैं सब ये गुनहगार एक तरह...

वो देखने हमें टुक बीमारी में न आया सौ बार आँखें खोलीं बालीं से सर उठाया गुलशन के ताएरों ने क्या बे-मुरव्वती की यक बर्ग-ए-गुल क़फ़स में हम तक न कोई लाया...

दो दिन से कुछ बनी थी सो फिर शब बिगड़ गई सोहबत हमारी यार से बेढब बिगड़ गई वाशुद कुछ आगे आह सी होती थी दिल के तईं इक़्लीम-ए-आशिक़ी की हवा अब बिगड़ गई...

कहते तो हो यूँ कहते यूँ कहते जो वो आता ये कहने की बातें हैं कुछ भी न कहा जाता...

अब नहीं सीने में मेरे जा-ए-दाग़ सोज़-ए-दिल से दाग़ है बाला-ए-दाग़ दिल जला आँखें जलीं जी जल गया इश्क़ ने क्या क्या हमें दिखलाए दाग़...

जिस जगह दौर-ए-जाम होता है वाँ ये आजिज़ मुदाम होता है हम तो इक हर्फ़ के नहीं मम्नून कैसा ख़त ओ पयाम होता है...

रू-ए-सुख़न है कीधर अहल-ए-जहाँ का या रब सब मुत्तफ़िक़ हैं इस पर हर एक का ख़ुदा है...

आशिक़ों की ख़स्तगी बद-हाली की पर्वा नहीं ऐ सरापा नाज़ तू ने बे-नियाज़ी ख़ूब की...

हम ने जाना था लिखेगा तू कोई हर्फ़ ऐ 'मीर' पर तिरा नामा तो इक शौक़ का दफ़्तर निकला...

यूँ उठे आह उस गली से हम जैसे कोई जहाँ से उठता है...

कौन कहता है न ग़ैरों पे तुम इमदाद करो हम फ़रामोशियों को भी कभू याद करो...

कुछ मौज-ए-हवा पेचाँ ऐ 'मीर' नज़र आई शायद कि बहार आई ज़ंजीर नज़र आई दिल्ली के न थे कूचे औराक़-ए-मुसव्वर थे जो शक्ल नज़र आई तस्वीर नज़र आई...

'मीर' बंदों से काम कब निकला माँगना है जो कुछ ख़ुदा से माँग...

दिल की वीरानी का क्या मज़कूर है ये नगर सौ मर्तबा लूटा गया...

आओ कभू तो पास हमारे भी नाज़ से करना सुलूक ख़ूब है अहल-ए-नियाज़ से फिरते हो क्या दरख़्तों के साए में दूर दूर कर लो मुवाफ़क़त किसू बेबर्ग-ओ-साज़ से...

फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ में सैर जो की हम ने जा-ए-गुल छानी चमन की ख़ाक न था नक़्श-ए-पा-ए-गुल अल्लाह रे अंदलीब की आवाज़-ए-दिल-ख़राश जी ही निकल गया जो कहा उन ने हाए गुल...

लिखते रुक़आ लिखे गए दफ़्तर शौक़ ने बात क्या बढ़ाई है...