दो दिन से कुछ बनी थी सो फिर शब बिगड़ गई
सोहबत हमारी यार से बेढब बिगड़ गई
वाशुद कुछ आगे आह सी होती थी दिल के तईं
इक़्लीम-ए-आशिक़ी की हवा अब बिगड़ गई
गर्मी ने दिल की हिज्र में उस के जला दिया
शायद कि एहतियात से ये तब बिगड़ गई
ख़त ने निकल के नक़्श दिलों के उठा दिए
सूरत बुतों की अच्छी जो थी सब बिगड़ गई
बाहम सुलूक था तो उठाते थे नर्म गर्म
काहे को 'मीर' कोई दबे जब बिगड़ गई