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इक फ़ुर्सत-ए-गुनाह मिली वो भी चार दिन देखे हैं हम ने हौसले पर्वरदिगार के...

गर बाज़ी इश्क़ की बाज़ी है जो चाहो लगा दो डर कैसा गर जीत गए तो क्या कहना हारे भी तो बाज़ी मात नहीं...

जमेगी कैसे बिसात-ए-याराँ कि शीशा ओ जाम बुझ गए हैं सजेगी कैसे शब-ए-निगाराँ कि दिल सर-ए-शाम बुझ गए हैं वो तीरगी है रह-ए-बुताँ में चराग़-ए-रुख़ है न शम-ए-वादा किरन कोई आरज़ू की लाओ कि सब दर-ओ-बाम बुझ गए हैं...

हर हक़ीक़त मजाज़ हो जाए काफ़िरों की नमाज़ हो जाए दिल रहीन-ए-नियाज़ हो जाए बेकसी कारसाज़ हो जाए...

बेज़ार फ़ज़ा दरपा-ए-आज़ार सबा है यूँ है कि हर इक हमदम-ए-देरीना ख़फ़ा है हाँ बादा-कशो आया है अब रंग पे मौसम अब सैर के क़ाबिल रविश-ए-आब-ओ-हवा है...

दरबार-ए-वतन में जब इक दिन सब जाने वाले जाएँगे कुछ अपनी सज़ा को पहुँचेंगे, कुछ अपनी जज़ा ले जाएँगे ऐ ख़ाक-नशीनो उठ बैठो वो वक़्त क़रीब आ पहुँचा है जब तख़्त गिराए जाएँगे जब ताज उछाले जाएँगे...

अब अपना इख़्तियार है चाहे जहाँ चलें रहबर से अपनी राह जुदा कर चुके हैं हम...

फ़िक्र-ए-दिलदारी-ए-गुलज़ार करूँ या न करूँ ज़िक्र-ए-मुर्ग़ान-ए-गिरफ़्तार करूँ या न करूँ क़िस्सा-ए-साज़िश-ए-अग़्यार कहूँ या न कहूँ शिकवा-ए-यार-ए-तरह-दार करूँ या न करूँ...

ये दाग़ दाग़ उजाला ये शब-गज़ीदा सहर वो इंतिज़ार था जिस का ये वो सहर तो नहीं...

हर इक दौर में हर ज़माने में हम ज़हर पीते रहे, गीत गाते रहे जान देते रहे ज़िंदगी के लिए साअत-ए-वस्ल की सरख़ुशी के लिए...

दयार-ए-यार तिरी जोशिश-ए-जुनूँ पे सलाम मिरे वतन तिरे दामान-ए-तार-तार की ख़ैर रह-ए-यक़ीं तिरी अफ़शान-ए-ख़ाक-ओ-ख़ूँ पे सलाम मिरे चमन तिरे ज़ख़्मों के लाला-ज़ार की ख़ैर...

तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं...

निसार मैं तिरी गलियों के ऐ वतन कि जहाँ चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले जो कोई चाहने वाला तवाफ़ को निकले नज़र चुरा के चले जिस्म ओ जाँ बचा के चले...

तिरी उमीद तिरा इंतिज़ार जब से है न शब को दिन से शिकायत न दिन को शब से है किसी का दर्द हो करते हैं तेरे नाम रक़म गिला है जो भी किसी से तिरे सबब से है...

किस हर्फ़ पे तू ने गोश-ए-लब ऐ जान-ए-जहाँ ग़म्माज़ किया एलान-ए-जुनूँ दिल वालों ने अब के ब-हज़ार-अंदाज़ किया सौ पैकाँ थे पैवस्त-ए-गुलू जब छेड़ी शौक़ की लय हम ने सो तीर तराज़ू थे दिल में जब हम ने रक़्स आग़ाज़ किया...

हम शैख़ न लीडर न मुसाहिब न सहाफ़ी जो ख़ुद नहीं करते वो हिदायत न करेंगे...

जब से बे-नूर हुई हैं शमएँ ख़ाक में ढूँढता फिरता हूँ न जाने किस जा खो गई हैं मिरी दोनों आँखें तुम जो वाक़िफ़ हो बताओ कोई पहचान मिरी...

वक़्त-ए-रुख़्सत निशानी जो तलब की तो कहा दाग़ काफ़ी है जुदाई का अगर याद रहे...

सुनने को भीड़ है सर-ए-महशर लगी हुई तोहमत तुम्हारे इश्क़ की हम पर लगी हुई रिंदों के दम से आतिश-ए-मय के बग़ैर भी है मय-कदे में आग बराबर लगी हुई...

गर मुझे इस का यक़ीं हो मिरे हमदम मिरे दोस्त गर मुझे इस का यक़ीं हो कि तिरे दिल की थकन तिरी आँखों की उदासी तेरे सीने की जलन मेरी दिल-जूई मिरे प्यार से मिट जाएगी...

फिर कोई आया दिल-ए-ज़ार नहीं कोई नहीं राह-रौ होगा कहीं और चला जाएगा ढल चुकी रात बिखरने लगा तारों का ग़ुबार लड़खड़ाने लगे ऐवानों में ख़्वाबीदा चराग़...

ठहर गई आसमाँ की नदिया वो जा लगी है उफ़क़ किनारे उदास रंगों की चाँद नय्या उतर गए साहिल-ए-ज़मीं पर...

ऐ ज़ुल्म के मातो लब खोलो चुप रहने वालो चुप कब तक कुछ हश्र तो उन से उट्ठेगा कुछ दूर तो नाले जाएँगे...

हसरत-ए-दीद में गुज़राँ हैं ज़माने कब से दश्त-ए-उम्मीद में गर्दां हैं दिवाने कब से देर से आँख पे उतरा नहीं अश्कों का अज़ाब अपने ज़िम्मे है तेरा क़र्ज़ न जाने कब से...

सितम सिखलाएगा रस्म-ए-वफ़ा ऐसे नहीं होता सनम दिखलाएँगे राह-ए-ख़ुदा ऐसे नहीं होता गिनो सब हसरतें जो ख़ूँ हुई हैं तन के मक़्तल में मिरे क़ातिल हिसाब-ए-ख़ूँ-बहा ऐसे नहीं होता...

कहीं नहीं है कहीं भी नहीं लहू का सुराग़ न दस्त-ओ-नाख़ुन-ए-क़ातिल न आस्तीं पे निशाँ न सुर्ख़ी-ए-लब-ए-खंजर न रंग-ए-नोक-ए-सिनाँ न ख़ाक पर कोई धब्बा न बाम पर कोई दाग़...

न जाने किस लिए उम्मीद-वार बैठा हूँ इक ऐसी राह पे जो तेरी रहगुज़र भी नहीं...

गिरानी-ए-शब-ए-हिज्राँ दो-चंद क्या करते इलाज-ए-दर्द तिरे दर्दमंद क्या करते वहीं लगी है जो नाज़ुक मक़ाम थे दिल के ये फ़र्क़ दस्त-ए-अदू के गज़ंद क्या करते...

चश्म-ए-मयगूँ ज़रा इधर कर दे दस्त-ए-क़ुदरत को बे-असर कर दे तेज़ है आज दर्द-ए-दिल साक़ी तल्ख़ी-ए-मय को तेज़-तर कर दे...

मैं क्या लिखूँ कि जो मेरा तुम्हारा रिश्ता है वो आशिक़ी की ज़बाँ में कहीं भी दर्ज नहीं लिखा गया है बहुत लुतफ़-ए-वस्ल ओ दर्द-ए-फ़िराक़ मगर ये कैफ़ियत अपनी रक़म नहीं है कहीं...

अगर शरर है तो भड़के जो फूल है तो खिले तरह तरह की तलब तेरे रंग-ए-लब से है...

ये आरज़ू भी बड़ी चीज़ है मगर हमदम विसाल-ए-यार फ़क़त आरज़ू की बात नहीं...

ख़ैर दोज़ख़ में मय मिले न मिले शैख़-साहब से जाँ तो छुटेगी...

मुझे दे दे रसीले होंट मासूमाना पेशानी हसीं आँखें कि मैं इक बार फिर रंगीनियों में ग़र्क़ हो जाऊँ! मिरी हस्ती को तेरी इक नज़र आग़ोश में ले ले...

उन्हीं के फ़ैज़ से बाज़ार-ए-अक़्ल रौशन है जो गाह गाह जुनूँ इख़्तियार करते रहे...

आ जाओ ने सुन ली तिरे ढोल की तरंग आ जाओ मस्त हो गई मेरे लहू की ताल ''आ जाओ अफ़्रीक़ा'' आ जाओ मैं ने धूल से माथा उठा लिया...

आज शब दिल के क़रीं कोई नहीं है आँख से दूर तिलिस्मात के दर वा हैं कई ख़्वाब-दर-ख़्वाब महल्लात के दर वा हैं कई और मकीं कोई नहीं है,...

तिरे ग़म को जाँ की तलाश थी तिरे जाँ-निसार चले गए तिरी रह में करते थे सर तलब सर-ए-रहगुज़ार चले गए तिरी कज-अदाई से हार के शब-ए-इंतिज़ार चली गई मिरे ज़ब्त-ए-हाल से रूठ कर मिरे ग़म-गुसार चले गए...

यक-ब-यक शोरिश-ए-फ़ुग़ाँ की तरह फ़स्ल-ए-गुल आई इम्तिहाँ की तरह सेहन-ए-गुलशन में बहर-ए-मुश्ताक़ाँ हर रविश खिंच गई कमाँ की तरह...

हम जीतेंगे हक़्क़ा हम इक दिन जीतेंगे बिल-आख़िर इक दिन जीतेंगे क्या ख़ौफ़ ज़ी-यलग़ार-ए-आदा...